DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979

Eighth Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.

भगवान, संतों के अनुसार वैराग्य के उदय होने पर ही परमात्मा की ओर यात्रा संभव है। और आप कहते हैं कि संसार में रह कर धर्म-साधना संभव है। इस विरोधाभास पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
आनंद मैत्रेय! विरोधाभास रंचमात्र भी नहीं है। विरोध तो है ही नहीं, आभास भी नहीं है विरोध का। दिखाई पड़ सकता है विरोध, क्योंकि सदियों के संस्कार ठीक-ठीक देखने नहीं देते, देखने में अड़चन डालते हैं, आंखों में धूल का काम करते हैं।
संत ठीक कहते हैं कि वैराग्य के उदय हुए बिना परमात्मा की ओर यात्रा नहीं हो सकती। और जब मैं कहता हूं: संसार में रह कर ही धर्म-साधना संभव है, तो संतों के विपरीत कुछ भी नहीं कह रहा हूं। संसार में बिना रहे वैराग्य ही कैसे पैदा होगा? संसार ही तो अवसर है वैराग्य का। संसार में ही तो वैराग्य सघन होगा। जो संसार से भाग जाएगा, उसका वैराग्य कच्चा रह जाएगा। और कच्चा वैराग्य रहा, तो राग फिर नये अंकुर फोड़ देगा, नये पल्लव निकल आएंगे।
इस उलटी सी दिखने वाली बात को ठीक से समझना। संसारी अक्सर संन्यास की बात सोचता है! संसार में दुख इतना है, पीड़ा इतनी है, चिंता इतनी है कि जिसमें थोड़ी भी बुद्धि है, वह कभी न कभी सोचता है कि छोडूं-छाडूं! बहुत हो चुका, और कब तक ऐसे ही घिट्टे खाना है! कब तक कोल्हू का बैल बना रहूं! वही चक्कर, वही सुबह, वही सांझ, वही दौड़-धूप, वही आपाधापी! क्या ऐसे ही दौड़-दौड़ कर मर जाना है या कुछ पाना भी है?
संसार में जिसके मन में संन्यास की वासना न उठती हो, संन्यास की कामना न उठती हो, ऐसा आदमी खोजना कठिन है! भोगी से भोगी को भीतर एक अभीप्सा उठनी शुरू हो जाती है! और जो भाग गए हैं संसार से, उन्हें संन्यास का दुख है। वे संन्यास से ऊबे हुए हैं। कब तक बैठे रहें इसी गुफा में! और कब तक फेरते रहें माला! और यह रोज-रोज की भीख मांगना और द्वार-द्वार से कहा जाना कि आगे बढ़ो और यह रोटी की चिंता, और बीमारी में कौन फिकर करेगा, और बुढ़ापे में कौन सहारा देगा! और हजार उनकी भी चिंताएं हैं, हजार उनके भी कष्ट हैं।
तुम ऐसा मत सोच लेना कि गुफा में जो रह रहा है, उसके कोई कष्ट नहीं हैं। उसके अपने कष्ट हैं–तुमसे भिन्न हैं। तुम्हारा कष्ट है कि भीड़ के कारण तुम्हें शांति नहीं मिलती; उसका कष्ट है कि अकेलापन काटता है। तुम अकेले होना चाहते हो, क्योंकि भीड़ से तुम थकते हो; रोज-रोज भीड़ ही भीड़ है, सब तरफ भीड़ है। भाग जाना चाहते हो कहीं। क्षण भर को भी विश्राम मिल जाए, ऐसी आकांक्षा तुम्हारे मन में जगती है। लेकिन जो अपनी गुफा में बैठा है, वह राह देखता है कि कोई भूला-भटका शिकारी ही आ जाए कि बैठ कर दो क्षण बातें हो लें, कि कुछ खबरें मिल जाएं कि संसार में क्या हो रहा है। वह भी प्रतीक्षा करता है कि कब भरे कुंभ का मेला, कि उतरूं पहाड़ से, कि जाऊं भीड़-भाड़ में। घबड़ाने लगता है एकाकीपन, काटने लगता है एकाकीपन।
तुम भी जंगल जाकर देखो। एकाध दिन, दो दिन, तीन दिन अच्छा लगेगा, प्रीतिकर लगेगा। बड़ा सौभाग्य मालूम होगा, स्वतंत्रता मालूम होगी। बस तीन दिन, और सुहागरात समाप्त! और घर की याद आने लगेगी। और घर की सुविधाएं…सुबह-सुबह स्नान के लिए गर्म जल, और सुबह-सुबह पत्नी जगाती चाय हाथ में लिए। अब न तो कोई गर्म जल है, न कोई चाय के लिए जगाता है, न कोई पूछने वाला है कि कैसे हो, अच्छे कि बुरे, न कोई पैर दबाने को है। अब तुम्हें वे सब सुख याद आने लगेंगे जो घर में संभव थे। वह घर की सुरक्षा, सुविधा, वह घर की ऊष्मा, वे प्रीति के सारे के सारे फूल स्मरण आने लगेंगे। बच्चों की किलकारियां, उनका हंसना और तुम्हारी गोद में आकर बैठ जाना और क्षण भर को तुम्हें भी बचपन की दुनिया में ले जाना, वह सब तुम्हें याद आने लगेगा।
आदमी का मन ऐसा है कि जो है उसे भूल जाता है और जो नहीं है उसकी याद करता है। महलों में रहने वाले लोग सोचते हैं कि झोपड़ों में रहने वाले लोग बड़ी मस्ती में रह रहे हैं। न कोई चिंता राज्य की, न कोई धन को बचाने की फिकर, न दुश्मनों का कोई डर, घोड़े बेच कर सोते हैं, मस्त है उनकी नींद! महलों वाले ईर्ष्या करते हैं झोपड़े वालों से। और झोपड़े में जो रह रहा है, वह सोचता है: अहा! महल के आनंद! उनकी कल्पना करके ही ईर्ष्या से जला जाता है।
यही द्वंद्व संसार और संन्यास का भी है। जो शहर में है वह सोचता है: गांव में बड़ा आनंद है, प्राकृतिक सौंदर्य है, शुद्ध हवाएं हैं, सूरज-चांद-तारे हैं। बंबई में तो चांद-तारे दिखाई ही कहां पड़ते हैं! पता ही नहीं चलता कब पूर्णिमा आई और कब गई। और जमीन पर ही इतनी रोशनी है कि तारे देखे कौन! फुर्सत किसको है! आंखें जमीन पर गड़ी हैं। हवा इतनी गंदी है!
वैज्ञानिक तो बहुत चकित हैं। न्यूयार्क की हवा का विश्लेषण किया है तो पाया कि हवा में इतना जहर है कि जितने जहर में आदमी को जिंदा रहना ही नहीं चाहिए, आदमी को मर ही जाना चाहिए। मगर आदमी अदभुत है! उसकी समायोजन की क्षमता अदभुत है! वह हर चीज से अपने को समायोजित कर लेता है। अगर तुम जहर भी धीरे-धीरे, धीरे-धीरे पीते रहो, तो तुम जहर पीने के भी आदी हो जाओगे। फिर जहर तुम्हारा कुछ न कर सकेगा।
तुमने कहानियां सुनी होंगी। पुराने दिनों में सम्राट विष-कन्याएं रखते थे राजमहल में। बचपन से ही पैदा हुई कोई सुंदर लड़की को विष पिलाना शुरू किया जाता था दूध के साथ। छोटी मात्रा, होम्योपैथी की मात्रा। और फिर धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाते जाते, बढ़ाते जाते, बढ़ाते जाते; जब तक वह जवान होती, तब तक उसका सारा रक्त जहर से भर जाता। उसका रक्त इतना जहरीला हो जाता कि अगर वह किसी का चुंबन ले ले तो वह आदमी मर जाए। इन विष-कन्याओं का उपयोग किया जाता था जासूसों की तरह। चूंकि वे सुंदर होतीं, उनको भेजा जा सकता था दूसरे राज्यों में। चूंकि वे इतनी सुंदर होतीं कि स्वयं राजा-महाराजा उनके प्रेम में पड़ जाते। और उनको चूमना संघातक! खुद नहीं मरती है वह लड़की, लेकिन जो उसे चूम ले, मर जाता है।
मनुष्य की समायोजन की क्षमता अपार है; हर हालत से अपने को समायोजित कर लेता है। न्यूयार्क में तीन गुना जहर है हवाओं में। वैज्ञानिक सोचते हैं, जितना आदमी सह सकता है, उससे तीन गुना ज्यादा! बंबई में दो गुना होगा।
बंबई में जो रहता है, सोचता है–गांव का सौंदर्य, नैसर्गिक हवाएं, चांद-तारे! लेकिन गांव वाले आदमी से पूछो। उसकी आंखें बंबई पर अटकी हैं। वह चाहता है कि कैसे बंबई पहुंच जाए! पत्नी छूटे तो छूटे, बच्चे छूटें तो छूटें, कैसे बंबई पहुंच जाए! और बंबई में मिलेगी झोपड़-पट्टी रहने को। रहेगा किसी गंदे नाले के करीब, जहां चारों तरफ सिवाय गंदगी के कुछ भी न होगा। लेकिन फिर भी, बंबई इंद्रपुरी मालूम होती है!
मनुष्य का मन ऐसा है, जो पास में नहीं है उसकी आकांक्षा होती है; जो पास है उससे विरक्ति होती है।
इसलिए मैं कहता हूं कि संसार से भागो मत, क्योंकि मैं संन्यासियों को जानता हूं जो संसार से भाग गए हैं। इस देश के करीब-करीब सभी परंपराओं के संन्यासियों से मेरे संबंध रहे हैं। और उन सबके भीतर मैंने संसार की गहन वासना देखी है। सत्तर साल की उम्र के एक जैन मुनि ने मुझे कहा कि पचास साल हो गए मुझे मुनि हुए, लेकिन मन में यह बात छूटती नहीं कि कहीं मैंने भूल तो नहीं की! जो संसार में हैं, कहीं वे ही तो मजा नहीं ले रहे हैं! कहीं मैं चूक तो नहीं गया इस झंझट में पड़ कर! अब तो देर भी बहुत हो चुकी, अब तो लौटने में भी कुछ सार नहीं है। लेकिन कौन जाने! मैं तो बहुत युवा था, बीस ही साल का था, तब घर छोड़ दिया। आ गया किसी की बातों के प्रभाव में। यह तो धीरे-धीरे पता चला कि जिसकी बातों के प्रभाव में आ गया था, उसे भी कुछ आनंद अनुभव नहीं हुआ है। मगर यह तो देर से पता चला, तब तक सम्मानित हो चुका था। लोग चरण छूते थे। वे ही लोग, जो दो दिन पहले जब तक मैं संन्यस्त न हुआ था, अगर उनके घर चपरासी के काम की आकांक्षा करता तो इनकार कर देते–वे ही लोग पैर छूते थे! तो अब लौटूं भी तो कैसे लौटूं? शोभा-यात्राएं निकालते थे–वे ही लोग, जो दो पैसे दे नहीं सकते थे, अगर मैं भीख मांगने जाता! अब मेरे चरणों पर सब निछावर करने को राजी थे। अब छोडूं तो कैसे छोडूं? जो संसार में प्रतिष्ठा नहीं मिली, अहंकार को तृप्ति नहीं मिली, वह मुनि होकर मिल रही थी। तो छोड़ भी न पाया। मगर मन में यह बात सरकती ही रही और अब भी सरकती है, सत्तर साल की उम्र में भी सरकती है–कि कहीं मैं चूक तो नहीं गया! कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं व्यर्थ के जाल में पड़ कर जीवन गंवा दिया! एक पूरा जीवन गंवा दिया!
इसलिए मैं कहता हूं: संसार से भागना मत। संसार से ज्यादा और सुविधापूर्ण कोई स्थान नहीं है जहां वैराग्य का जन्म होता है। संसार में रह कर विरागी हो जाओ। भागते क्यों हो? भागने का मतलब है कि अभी कुछ डर है संसार का। डर का अर्थ है: अभी कुछ राग है। डरते हम उसी चीज से हैं जिससे राग होता है। डरते इसीलिए हैं कि हमें अपने पर भरोसा नहीं है। हम जानते हैं कि अगर एकांत और ऐसी सुविधा मिली तो हम अपने को रोक न पाएंगे; अपनी उत्तेजनाओं पर, अपनी वासनाओं पर संयम न रख पाएंगे। हमें अपने संयम के कच्चेपन का पक्का पता है। इसलिए उचित यही है कि ऐसे अवसर से ही पीठ फेर लो; ऐसी जगह से ही हट जाओ। धन का ढेर लगा हो तो हम अपने को रोक न पाएंगे, झोली भर लेंगे। इसका जिसको अनुभव होता है, वह सोचता है: ऐसी जगह कदम ही मत रखना जहां धन का ढेर लगा हो। अगर कोई सुंदर स्त्री दिखाई पड़ेगी, उपलब्ध होगी, तो हम अपने को रोक न पाएंगे; या सुंदर पुरुष, तो हमारे नियंत्रण टूट जाएंगे, हमारे संयम के कच्चे धागे उखड़ जाएंगे, हमारे भीतर दबी हुई वासनाएं उभर आएंगी, प्रकट हो जाएंगी। इससे बेहतर है ऐसी जगह भाग जाओ, जहां अवसर ही न हो। लेकिन अवसर का न होना सिद्ध नहीं करता कि वासना समाप्त हो गई है।
क्या तुम सोचते हो कि अंधे आदमी की देखने की वासना समाप्त हो जाती है? क्या अंधा आदमी रंगों को देखना नहीं चाहता? क्या अंधा आदमी सुबह को देखना नहीं चाहता? क्या अंधा आदमी रात तारों से भरे हुए आकाश को देखना नहीं चाहता? क्या अंधा आदमी किसी सुंदर चेहरे को, किन्हीं झील जैसी नीली आंखों को नहीं देखना चाहता? क्या तुम सोचते हो कि बहरे की वासना समाप्त हो जाती है संगीत को सुनने की? या कि लंगड़े की वासना समाप्त हो जाती है चलने की, उठने की, दौड़ने की?
काश, इतना आसान होता तो जंगल में भाग गए संन्यासी विराग को उपलब्ध हो जाते! लेकिन जंगल भाग कर वे केवल अवसर से वंचित होते हैं, भीतर की कामनाएं तो और भी प्रगाढ़ होकर, और भी प्रज्वलित होकर जलने लगती हैं, और भी शुद्ध होकर जलने लगती हैं।
तुम्हारे जीवन में ऐसा रोज-रोज अनुभव होता है। जिस पत्नी से तुम परेशान हो, चाहते हो कि मायके चली जाए, कुछ देर तो छुटकारा हो; उसके मायके चले जाने पर कितनी देर तक छुटकारा अनुभव होता है? दिन, दो दिन, चार दिन–और उसकी याद आने लगती है, और वे सारे सुख जो उसके कारण थे, जो पहले दिखाई ही न पड़े थे। हर चीज में अड़चन मालूम होने लगती है। अब सोचते हो कि वापस लौट आए। अब बड़े प्रेम-पातियां लिखने लगते हो, कि तेरे बिना मन नहीं लगता! और जरा सोचो तो, थूके को चाट रहे हो! अभी चार दिन पहले सोचते थे कि किसी तरह छुटकारा हो और अब तेरे बिना मन नहीं लगता!
मन की इस स्थिति को ठीक से समझ लो तो मेरी बात तुम्हें समझ में आ जाएगी। और तब तुम पाओगे: मैं जो कह रहा हूं वह संतों के विपरीत नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वही संतों के पक्ष में है। मैं चाहता हूं कि रहो सघन संसार में, ताकि वैराग्य घना होता रहे, घना होता रहे, घना होता रहे! इतना सघन हो जाए एक िदन कि अवसर तो बाहर मौजूद रहे, लेकिन भीतर वासना मर जाए।
ये दो बातें हैं–अवसर और वासना। अवसर का न होना वासना का असिद्ध होना नहीं है। हां, वासना का असिद्ध हो जाना जरूर क्रांति है, रूपांतरण है।
तो मैं कहता हूं: धन में रहो ताकि धन से मुक्त हो जाओ। भोगो, ताकि भोग व्यर्थ हो जाए। इसके सिवाय कोई और उपाय नहीं है। भागे कि भोग कभी व्यर्थ नहीं होगा; भोग सार्थक बना रहेगा; भोग की उमंग भीतर उठती ही रहेगी।
तुम जानते हो, तुम्हारे पुराणों में कथाएं तो भरी पड़ी हैं कि जब भी कोई ऋषि-मुनि ज्ञान को उपलब्ध होने को हो, बस उपलब्ध होने को होता है कि इंद्र भेज देते हैं उर्वशियों को। आखिर इंद्र उर्वशी को क्यों भेजते हैं? क्योंकि ये जो ऋषि हैं, ये जो मुनि हैं, स्त्रियों से भागे हैं। गणित साफ है, मनोविज्ञान स्पष्ट है। तुमने शायद ऐसा सोचा हो या न सोचा हो; चाहे कोई इंद्र हों, उर्वशियां हों या न हों–मगर विज्ञान बड़ा साफ है। सूत्र स्पष्ट है। स्त्रियां छोड़ कर भाग गया यह मुनि, यह जंगल में बैठा है। एक बात पक्की है कि जिसको छोड़ कर आया है, उसकी वासना इसके भीतर सर्वाधिक प्रगाढ़ होगी। इसको अगर डुलाना है, इसको अगर गिराना है, तो भेज दो एक अप्सरा। यह डोल जाएगा, यह गिर जाएगा। इंद्र को मनोविज्ञान का ठीक-ठीक बोध है।
मेरे संन्यासी को इंद्र नहीं डुला सकेगा! इधर इंद्र चिंतित है। इधर उसके पुराने सारे उपाय व्यर्थ हैं। मेरे संन्यासी के पास उर्वशी आकर भला डोल जाए, मेरा संन्यासी नहीं डोलने वाला है। कोई कारण नहीं है। बहुत उर्वशियां देखीं, उर्वशियां ही उर्वशियां नाच रही हैं! तुम देखते हो, इंद्र की व्यवस्था को मैं किस तरह काट रहा हूं! इंद्र बड़ी बिगूचन में है। पुरानी तरकीबें कोई, पुराने हथकंडे कोई काम आएंगे नहीं। वे पुराने ऋषियों पर काम आ गए, भगोड़े थे। और कोई अप्सरा ही भेजने की जरूरत नहीं थी, कोई साधारण स्त्री पर्याप्त होती। नाहक ही, जहां सुई काम कर जाती, वहां तलवार चला रहे थे इंद्र। साधारण स्त्री काफी होती।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने पहाड़ पर एक मकान बना रखा है। वहां कभी-कभी जाता है विश्राम के लिए। कह कर जाता है तीन सप्ताह रहूंगा, आ जाता है आठवें दिन! तो मैंने पूछा कि बात क्या है? कह कर गए थे कि तीन सप्ताह रहूंगा, कभी आठवें दिन आ जाते हो; कभी कह कर जाते हो कि चार सप्ताह रहूंगा और सातवें दिन वापस लौट आते हो!
उसने कहा: अब आपसे क्या छिपाना! मैंने वहां एक नौकरानी रख छोड़ी है। वह इतनी बदशक्ल है कि उससे बदशक्ल औरत मैंने नहीं देखी। उसे देख कर ही वैराग्य उदय होता है। रागी से रागी मन में एकदम वैराग्य उदय हो जाए। वह ऐसा समझो कि उर्वशी से बिलकुल उलटी है। उसे देख कर ही मन हटता है, जुगुप्सा पैदा होती है, वीभत्स…। तो मैंने यह नियम बना रखा है कि जाता हूं पहाड़ तय करके कि तीन सप्ताह रहूंगा। लेकिन जिस दिन वह स्त्री मुझे सुंदर मालूम होने लगती है, बस उसी दिन भाग खड़ा होता हूं। सात दिन, आठ दिन, दस दिन ज्यादा से ज्यादा, बस। वह मेरा मापदंड है। जिस दिन मुझे लगने लगता है कि यह स्त्री सुंदर है, उस दिन मैं सोचता हूं कि नसरुद्दीन, बस, अब हो गया, अब वापस लौट चलो, अब घर वापस लौट चलो।
कुरूप से कुरूप स्त्री भी सुंदर मालूम हो सकती है, अगर वासना को बहुत दबाया गया हो। भूखे आदमी को रूखी रोटी भी सुस्वादु मालूम होगी।
क्यों अप्सरा भेजी? मैं नहीं मानता कि इंद्र ने अप्सरा भेजी होगी। कोई भी नौकर-चाकरनियां भेज दी होंगी। मुनि महाराज समझे कि अप्सरा आई है। मेरी अपनी समझ यह है। उर्वशी को भेजने की जरूरत ही क्या है? यही मुल्ला नसरुद्दीन की स्त्री भेज दी होगी, जो उसने पहाड़ पर रख छोड़ी है; मुनि महाराज समझे होंगे कि भेजी उर्वशी। कोई जरूरत नहीं है। जिन्होंने दबाया है, उन्हें उभारना तो बड़ा आसान है। उन्हें तो छोटी सी चीज भी उभार दे सकती है।
इसलिए मैं दमन के विपरीत हूं, क्योंकि जिसने दबाया वह कभी मुक्त नहीं होगा। मैं संसार के पक्ष में हूं। और यही परमात्मा का प्रयोजन है संसार बनाने का। यह अवसर है विराग में ऊपर उठने का। संसार से ज्यादा और सुंदर व्यवस्था क्या हो सकती थी मनुष्य को वैराग्य देने की? सारा उपद्रव दे दिया है संसार में। और ज्यादा उपद्रव की तुम कल्पना भी क्या कर सकते हो! कुछ परमात्मा ने छोड़ा हो तो आदमी ने उसकी पूर्ति कर दी है। सब उपद्रव है यहां, उपद्रव ही उपद्रव है! वैराग्य का कैसा सुअवसर है!

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