AMI JHARAT BIGSAT KANWAL Osho Hindi Discourse Podcast Part-5
DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979
Fifth Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
तज बिकार आकार तज, निराकार को ध्यान।
निराकार में पैठ कर, निराधार लौ लाए।।
प्रथम ध्यान अनुभौ करै, जासे उपजै ग्यान।
दरिया बहुतै करत हैं, कथनी में गुजरान।।
पंछी उड़ै गगन में, खोज मंडै नहिं माहिं।
दरिया जल में मीन गति, मारग दरसै नाहिं।।
मन बुधि चित पहुंचै नहीं, सब्द सकै नहिं जाए।
दरिया धन वे साधवा, जहां रहे लौ लाए।।
किरकांटा किस काम का, पलट करे बहु रंग।
जन दरिया हंसा भला, जद तद एकै रंग।।
दरिया बगला ऊजला, उज्जल ही होए हंस।
ये सरवर मोती चुगैं, वाके मुख में मंस।।
जन दरिया हंसा तना, देख बड़ा ब्यौहार।
तन उज्जल मन ऊजला, उज्जल लेत अहार।।
बाहर से उज्जल दसा, भीतर मैला अंग।
ता सेती कौवा भला, तन मन एकहि रंग।।
मानसरोवर बासिया, छीलर रहै उदास।
जन दरिया भज राम को, जब लग पिंजर सांस।।
दरिया सोता सकल जग, जागत नाहिं कोए।
जागे में फिर जागना, जागा कहिए सोए।।
साध जगावै जीव को, मत कोई उट्ठे जाग।
जागे फिर सोवै नहीं, जन दरिया बड़ भाग।।
हीरा लेकर जौहरी, गया गंवारै देस।
देखा जिन कंकर कहा, भीतर परख न लेस।।
दरिया हीरा क्रोड़ का, कीमत लखै न कोए।
जबर मिलै कोई जौहरी, तब ही पारख होए।।
फिर दर्द उठा है, आंख भरी
सीने में बाएं कोने से
फिर हूक उठी गहरी-गहरी
दिन तो दुनिया की ले-दे में
कट गया चलो जैसे-तैसे
पल-पल पहाड़ जैसी भारी
यह रात कटेगी पर कैसे
खाएगी मेरा हृदय नोंच
यह सांध्य-चील क्रूरता भरी
कांटे बबूल के पलकों में
अनजाने ही उग आएंगे
मैं तो जागूंगा सो कर भी
सब सो-सो कर जग जाएंगे
टूटेगा तन का पोर-पोर
जैसे शराब उतरी-उतरी
फिर सुलगेगा चंदन भीतर
पर बाहर धुआं न आएगा
आवाज नहीं होगी कोई
घुन भीतर-भीतर खाएगा
फिर मुझको डस कर उलटेगी
वह स्मृतियों की सांपिन ठहरी
कब रेत बंधी है मुट्ठी में
कब अंजुरी में जल ठहरा है
कहती भी क्या गूंगी पीड़ा
सुनता भी क्या जग बहरा है
जिंदगी बूंद है पारे की
जो एक बार बिखरी, बिखरी
फिर दर्द उठा है, आंख भरी
सीने में बाएं कोने से
फिर हूक उठी गहरी-गहरी
इस जीवन को सस्ते में मत गंवा देना। चूंकि मिल गया है अनायास, निर्मूल्य मत समझ लेना। कीमत तो इसकी कोई भी नहीं, पर मूल्य इसका बहुत है। कीमत और मूल्य का भाषाकोश में तो एक ही अर्थ है, लेकिन जीवन के कोश में एक ही अर्थ नहीं। जिन चीजों की कीमत होती है उनका कोई मूल्य नहीं होता और जिन चीजों का मूल्य होता है उनकी कोई कीमत नहीं होती।
प्रेम का मूल्य है, कीमत क्या? ध्यान का मूल्य है, कीमत क्या? स्वतंत्रता का मूल्य है, कीमत क्या? और बाजार में बिकती हुई चीजें हैं, सब पर कीमत लगी है, पर उनका मूल्य क्या है?
जो व्यक्ति कीमत के ही जगत में जीता है, वह संसारी है। जो मूल्य के जगत में प्रवेश करता है, वह संन्यासी है। मूल्य प्रसाद है परमात्मा का। लेकिन चूंकि प्रसाद है, इसलिए चूक जाने की संभावना है। कीमत देनी पड़ती तो शायद तुम जीवन का मूल्य भी करते। चूंकि मिल गया है; तुम्हारी झोली में कोई अनजान ऊर्जा उसे भर गई है; तुम्हें पता भी नहीं चला और कोई तुम्हारे प्राणों में श्वास फूंक गया है; तुम्हें खबर भी नहीं, कौन तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है–इसलिए भूले-भूले कंकड़-पत्थर बीन-बीन कर ही जीवन को गंवा मत देना। जब तक परमात्मा की खोज शुरू न हो, तब तक जानना ही मत कि तुम जीए। जीवन की शुरुआत परमात्मा की खोज से ही होती है। जन्म काफी नहीं है जीवन के लिए। एक और जन्म चाहिए। और धन्यभागी हैं वे, जिनके जीवन में हूक उठती है, पुकार उठती है; पीड़ा का जिन्हें अनुभव होता है; जो परमात्मा की तलाश पर निकल पड़ते हैं; जो सब दांव पर लगाने को राजी हो जाते हैं।
फिर दर्द उठा है, आंख भरी
सीने में बाएं कोने से
फिर हूक उठी गहरी-गहरी
कब रेत बंधी है मुट्ठी में
कब अंजुरी में जल ठहरा है
कहती भी क्या गूंगी पीड़ा
सुनता भी क्या जग बहरा है
जिंदगी बूंद है पारे की
जो एक बार बिखरी, बिखरी
सावधान! जिंदगी गंवानी तो बहुत आसान है, कमानी बहुत कठिन है। पारे की बूंद है, बिखरी तो बिखरी, फिर सम्हाल न सकोगे। और क्षण-क्षण बूंद बिखरती जा रही है और तुम हो कि खोए हो न मालूम किस व्यर्थता के जाल में–कोई धन, कोई पद, कोई प्रतिष्ठा। दो कौड़ी उनका मूल्य है; शायद दो कौड़ी भी उनका मूल्य नहीं है। कंकड़-पत्थर बीन रहे हो, जब कि हीरे की खदान बहुत ही निकट है, बहुत ही करीब है–तुम्हारे भीतर है! उसी हीरे की खदान तक कैसे पहुंचा जाए, इस संबंध में आज के सूत्र हैं।
पीड़ा की गंध लिए,
विष का अनुबंध लिए,
चंदन की छांव तले, जीवन के गीत पले।
तिनकों का आलंबन आंधी की घातों पर,
कंपती सी आशाएं नश्वर संघातों पर।
मृत्यु की हथेली पर जीने की उत्कंठा,
धूप और छांहों की संघर्षी मातों पर।
अधरों से आग पिए,
अंतर में नेह लिए,
जैसे तूफानों में बुझता सा दीप जले।
सतरंगे मौसम को बंद किए बांहों में,
उद्वेलित यौवन का ज्वार लिए चाहों में।
पलकों की कोरों पर अंजवाए गहराई,
अविरल गति चलने को पथरीली राहों में।
अपना अधिकार लिए,
उर में नव-ज्वार लिए,
सिकता पर रेखा बन ज्यों मिटती लहर ढले।
डसते विश्वासों पर आंसू से भरे भरे,
हारों की लड़ियों में कलियों से झरे झरे।
झीने अवगुंठन में सिंदूरी मांग लिए,
प्रतिबिंबित रूप निरख दर्पण में तिरे तिरे।
यौवन का मोड़ लिए,
हंसने की होड़ लिए,
जैसे निज स्मित से पूनम का चांद छले।
जेठ की दोपहरी में शीतल जिज्ञासा बन,
द्वंद्वों के मंथन में अमृत अभिलाषा बन।
पनघट के घट-घट में सागर को सीमित कर,
दर्शन के प्यासे को जीवन की परिभाषा बन।
राग में विराग लिए,
तपने का त्याग लिए,
बनने को स्वर्णमुकुट ज्यों कंचन देह जले।
जेठ की दोपहरी में शीतल जिज्ञासा बन!
यह जीवन तो जलती हुई दोपहरी है। यहां सब जल रहा है, धू-धू कर जल रहा है। यह जीवन तो चिताओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और तुम भी जानते हो, और हरेक जानता है, क्योंकि सिवाय घावों के हाथ लगता क्या है?
जेठ की दोपहरी में शीतल जिज्ञासा बन!
उठाओ जिज्ञासा को। खोजें उसे जो कभी खोएगा नहीं। खोजें उसे जिसे पा लेने पर फिर सारी खोज समाप्त हो जाती है।
द्वंद्वों के मंथन में अमृत अभिलाषा बन।
कब तक उलझे रहोगे दुई में, द्वैत में? कब तक बंटे रहोगे द्वंद्व में?
मध्य-युग में यूरोप में कैदियों को एक सजा दी जाती थी। सजा ऐसी थी कि कैदी को लिटा कर चार घोड़ों से उसके हाथ-पैर बांध दिए जाते थे। एक घोड़े से एक हाथ, दूसरे घोड़े से दूसरा हाथ। तीसरे घोड़े से पैर, चौथे घोड़े से दूसरा पैर। और चारों घोड़ों को चारों दिशाओं में दौड़ा दिया जाता था। टुकड़े-टुकड़े हो जाता था आदमी, खंड-खंड हो जाता था। सजा का नाम था क्वार्टरिंग। और ठीक ही था सजा का नाम, क्योंकि चार टुकड़े हो जाते थे, चौथाई हो जाता था आदमी। सजा का नाम था चौथाई।
लेकिन जिंदगी को अगर गौर से देखो तो ऐसी सजा तुम खुद अपने को दे रहे हो। तुमने कितनी वासनाओं के साथ अपने को जोड़ लिया! अलग-अलग दिशाओं में जाती वासनाएं–कोई पूरब, कोई पश्चिम, कोई दक्षिण, कोई उत्तर। चार घोड़े नहीं, हजार घोड़ों से तुम बंधे हो। खंड-खंड हुए जा रहे हो, टूटे जा रहे हो, बिखरे जा रहे हो। इसी बिखराव को तनाव कहो, चिंता कहो, बेचैनी कहो, विक्षिप्तता कहो, जो भी तुम्हें कहना हो, मगर यह बिखराव है। और इस बिखराव में कभी तुम्हें विश्राम न मिलेगा। तुम तपोगे, कटोगे, सड़ोगे, मरोगे; जीओगे कभी भी नहीं।
जीवन का संबंध तो तब होता है, जब तुम्हारी सारी वासनाएं एक अभीप्सा में समाहित हो जाती हैं; जब तुम्हारी अलग-अलग दिशाओं में दौड़ती हुई कामनाएं एक जिज्ञासा में रूपांतरित हो जाती हैं; जब तुम और सब न मालूम क्या-क्या छोड़ कर, सिर्फ उस एक को खोजने के लिए आतुर, आबद्ध हो जाते हो, कटिबद्ध हो जाते हो, प्रतिबद्ध हो जाते हो। छोड़ो दो को, छोड़ो अनेक को–पकड़ो एक को, क्योंकि एक को पकड़ने में तुम भी एक हो जाओगे। अनेक को पकड़ोगे, तुम भी अनेक हो जाओगे। और एक होने का आनंद और एक होने की विश्रांति!
जेठ की दोपहरी में शीतल जिज्ञासा बन!
द्वंद्वों के मंथन में अमृत अभिलाषा बन।
क्या मरणधर्मा तुम्हारी खोज है! क्या उसे खोज रहे हो जो मृत्यु तुमसे छीन लेगी! अमृत को कब खोजोगे?
द्वंद्वों के मंथन में अमृत अभिलाषा बन।
पनघट के घट-घट में सागर को सीमित कर!
एक-एक घट में, एक-एक हृदय में पूरा आकाश उतर सकता है, ऐसी तुम्हारी गरिमा है, ऐसा तुम्हारा गौरव है। एक-एक बूंद सागर को अपने में समा सकती है, ऐसी तुम्हारी क्षमता है, ऐसी तुम्हारी संभावना है। लेकिन तुम आकाश की तरफ आंख ही नहीं उठाते। तुम जमीन में आंखों को गड़ाए, कंकड़-पत्थरों में, कूड़े-कर्कट में ही अपने जीवन को बिता देते हो। और भरोसा भी किन चीजों का कर रहे हो! तूफान आ रहा है बड़ा और पक्षी ने तिनकों से घोंसला बना लिया है और इस भरोसे में बैठा है कि सुरक्षा है। तूफान आ रहा है भयंकर और रेत में तुमने ताश के पत्तों का घर बना लिया है। और इस भरोसे में बैठे हो कि क्या चिंता है! मौत आएगी, तुम्हारे सब ताश के घर गिरा जाएगी। इसके पहले कि मौत आए, अमृत का थोड़ा स्वाद ले लो।
तिनकों का आलंबन आंधी की घातों पर,
कंपती सी आशाएं नश्वर संघातों पर।
मृत्यु की हथेली पर जीने की उत्कंठा,
धूप और छांहों की संघर्षी मातों पर।
मौत के हाथ में बैठे हो। कब मुट्ठी बंध जाएगी, कहा नहीं जा सकता। मौत के हाथों में बैठे हो, फिर भी व्यर्थ में चिंता लगी है।
बौद्धों की एक प्रसिद्ध कथा है। एक राजकुमार युद्ध हार गया है और जंगल में शरण के लिए भाग गया है। दुश्मन पीछे लगे हैं। उनके घोड़ों की टाप का शोरगुल बढ़ता जाता है। और राजकुमार बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। क्योंकि वह ऐसी जगह पहुंच गया है पहाड़ी की कगार पर, जहां रास्ता समाप्त हो जाता है। आगे भयंकर खड्ड है। पीछे दुश्मनों के आने की आवाज सघन होती जाती है। एक-एक घड़ी मौत करीब आ रही है। ऐसी ही दशा तुम्हारी है, जैसी उस राजकुमार की थी। फिर भी हिम्मत जुटाता है। आखिरी आशा बांधता है। सोचता है कि छलांग लगा दूं। क्योंकि दुश्मन के हाथ में पड़ा तो तत्क्षण गर्दन कट जाएगी। छलांग लगाना भी कम खतरनाक नहीं है, खड्ड भयंकर है, बचने की आशा नहीं है। लेकिन फिर भी दुश्मन के हाथ में पड़ने से तो ज्यादा आशा है; शायद हाथ-पैर टूट जाएंगे, लेकिन जीवन बचेगा। लंगड़ा हो जाऊंगा, लेकिन फिर भी जीवन बचेगा। और कौन जाने कभी-कभी चमत्कार भी हो जाता है कि गिरूं और बच जाऊं! न हाथ टूटें, न पैर टूटें।
तो नीचे झांक कर देखता है। और नीचे देखता है कि दो सिंह मुंह बाए ऊपर की तरफ देख रहे हैं। अब तो कोई भरोसा न रहा। घोड़ों के टाप की आवाज और जोर से बढ़ने लगी। और सिंह नीचे गर्जन कर रहे हैं। उन्होंने भी राजकुमार को देख लिया है कि वह खड़ा है ऊपर। अगर गिर जाए तो प्रतीक्षा में रत हैं कि तत्क्षण चीर-फाड़ करके खा जाएंगे। कोई और रास्ता न देख कर राजकुमार एक वृक्ष की जड़ों को पकड़ कर लटक रहता है कि शायद दुश्मनों को दिखाई न पडूं। सोच कर कि रास्ता समाप्त हो गया है, वे वापस लौट जाएं। और वृक्ष की जड़ों में लटका हुआ सिंहों से भी बच जाऊंगा। अगर दुश्मन लौट गए तो एक आशा है कि मैं वापस लौट कर बच सकता हूं।
जब वह जड़ों को पकड़ कर लटक जाता है तब देखता है कि और भी मुसीबत है। एक सफेद और एक काला चूहा, जिस जड़ को वह पकड़ कर लटका है, उसे काट रहे हैं। दिन और रात के प्रतीक हैं सफेद और काला चूहा। अब तो बचने की कोई संभावना नहीं है। दुश्मनों की आवाज बढ़ती जाती है, सिंहों का गर्जन बढ़ता जाता है। और चूहे हैं कि जड़ काटे डाल रहे हैं, काटे डाल रहे हैं, अब कटी, तब कटी। ज्यादा देर नहीं है, जड़ कटती जा रही है। और तभी पास के एक मधुछत्ते से एक शहद की बूंद टपकती है। अपनी जीभ पर वह शहद की बूंद को ले लेता है। और उसका स्वाद बड़ा मधुर है। उस क्षण में भूल ही जाता है सब–दुश्मन के घोड़ों की टाप, सिंहों की गर्जना, वे सफेद और काले चूहे काटते हुए जड़–सब भूल जाता है। शहद बड़ा मीठा है।
बौद्ध कथा बड़ी प्यारी है। तुम्हारे संबंध में है। तुम्हीं हो वह राजकुमार। चारों तरफ से मौत घिरी है और शहद की एक बूंद का मजा ले रहे हो। और शहद की एक बूंद में सोचते हो कि सब मिल गया, अब तुम्हें मौत की चिंता नहीं है। जैसे अमृत मिल गया! तुम्हारे सुख क्या हैं? शहद की बूंदें हैं; जीभ पर थोड़ा सा स्वाद है। और मौत चारों तरफ से घिरी है।
तिनकों का आलंबन आंधी की घातों पर,
कंपती सी आशाएं नश्वर संघातों पर।
मृत्यु की हथेली पर जीने की उत्कंठा,
धूप और छांहों की संघर्षी मातों पर।
अधरों से आग पिए,
अंतर में नेह लिए,
जैसे तूफानों में बुझता सा दीप जले।
बड़े तूफान हैं और तुम एक छोटे दीये हो। तुम्हारा बुझना निश्चित है। बचने का कोई उपाय नहीं। न कभी कोई बचा है, न कभी कोई बच सकेगा।
लेकिन यह जो छोटा सा क्षण तुम्हारे हाथ में है, इसका सदुपयोग हो सकता है। यह क्षण सत्संग बन सकता है। यह क्षण तुम्हारे भीतर ज्योति का विस्फोट बन सकता है। यह क्षण तुम्हारे भीतर ध्यान बन सकता है। यह क्षण तुम्हारे भीतर साक्षी का भाव बन सकता है।
सोचो उस राजकुमार को फिर। काश मधु की बूंद में न उलझता! मौत को चारों तरफ घिरा देख कर शांत चित्त हो जाता। आखिरी इस क्षण में साक्षी हो जाता। आखिरी इस क्षण में जाग कर शुद्ध चैतन्य हो जाता। तो सारी मृत्यु व्यर्थ हो जाती, अमृत से नाता जुड़ जाता।
साक्षी में अमृत है। जागरण में अमृत है। अमी झरत, बिगसत कंवल! जैसे ही तुम साक्षी हो जाते हो, अमृत की वर्षा होने लगती है और तुम्हारे भीतर छिपा हुआ शाश्वत का कमल खिलने लगता है।
दरिया कहते हैं:
तज बिकार आकार तज, निराकार को ध्यान।
निराकार में पैठ कर, निराधार लौ लाए।।
कहते हैं: एक ही काम तुम कर लो तो सब हो जाए। व्यर्थ के विकारों में मत उलझे रहो। शहद की बूंदों में मत उलझे रहो–धोखा है। व्यर्थ के आकारों, आकृतियों में मत उलझे रहो–भ्रांतियां हैं, मृग-मरीचिकाएं हैं। एक निराकार का ध्यान करो।
निराकार का ध्यान कैसे हो? मुझसे आकर लोग पूछते हैं: आकार का तो ध्यान हो सकता है, निराकार का ध्यान कैसे हो?
ठीक है उनका प्रश्न, सम्यक है। राम का ध्यान कर सकते हो–धनुर्धारी राम। कृष्ण का ध्यान कर सकते हो–बांसुरी वाले कृष्ण। कि क्राइस्ट का ध्यान कर सकते हो–सूली पर चढ़े। कि बुद्ध का, कि महावीर का। लेकिन निराकार का ध्यान?
तुम्हें थोड़ी ध्यान की प्रक्रिया समझनी होगी। जिसको तुम ध्यान कहते हो, वह ध्यान नहीं है, एकाग्रता है। एकाग्रता के लिए आकार जरूरी होता है। क्योंकि किसी पर एकाग्र होना होगा। कोई एक बिंदु चाहिए–राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर…। कोई प्रतिमा, कोई रूप, कोई आकार, कोई मंत्र, कोई शब्द, कोई आधार, कोई आलंबन चाहिए–तो तुम एकाग्र हो सकते हो।
एकाग्रता ध्यान नहीं है। ध्यान तो एकाग्रता से बड़ी उलटी बात है। हालांकि तुम्हारे ध्यान के संबंध में जो किताबें प्रचलित हैं, उन सबमें यही कहा गया है कि ध्यान एकाग्रता का नाम है। गलत है वह बात। गैर-अनुभवियों ने लिखी होगी। एकाग्रता तो चित्त को संकीर्ण करती है। एकाग्रता तो एक बिंदु पर अपने को ठहराने का प्रयास है। एकाग्रता विज्ञान में उपयोगी है। ध्यान बड़ी और बात है। ध्यान का अर्थ होता है: शुद्ध जागरूकता। किसी चीज पर एकाग्र नहीं, सिर्फ जागे हुए–बस जागे हुए।
ऐसा समझो कि टार्च होती है। टार्च तो ध्यान नहीं है, एकाग्रता है। जब तुम टार्च जलाते हो तो प्रकाश एक जगह जाकर केंद्रित हो जाता है। लेकिन जब तुम दीया जलाते हो तो दीया जलाना ध्यान है। वह एक चीज पर जाकर एकाग्र नहीं होता; जो भी आस-पास होता है, सभी को प्रकाशित कर देता है। एकाग्रता में, अगर तुम टार्च लेकर चल रहे हो तो एक चीज तो दिखाई पड़ती है, शेष सब अंधेरे में होता है। अगर दीया तुम्हारे हाथ में है तो सब प्रकाशित होता है। और ध्यान तो ऐसा दीया है कि उसमें कोई तलहटी भी नहीं है कि दीया तले अंधेरा हो सके। ध्यान तो सिर्फ ज्योति ही ज्योति है, जागरण ही जागरण है–और बिन बाती बिन तेल! इसलिए दीया तले अंधेरा होने की भी संभावना नहीं है।
ध्यान शब्द को तुम समझो साक्षी-भाव। जैसे मुझे तुम सुन रहे हो, दो ढंग से सुन सकते हो। जो नया-नया यहां आया है, वह एकाग्रता से सुनेगा। स्वभावतः, दूर से आया है, कष्ट उठा कर आया है, यात्रा की है। कोई शब्द चूक न जाए! तो सब तरफ से एकाग्र होकर सुनेगा। सब तरफ से चित्त को हटा लेगा। जो मैं कह रहा हूं, बस उसी पर टिक जाएगा। लेकिन जो यहां थोड़ी देर रुके हैं, जो थोड़ी देर यहां रंगे हैं, जो थोड़ी देर यहां की मस्ती में डूबे हैं, वे एकाग्रता से नहीं सुन रहे हैं, ध्यान से सुन रहे हैं।
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