AMI JHARAT BIGSAT KANWAL Osho Hindi Discourse Podcast Part-2

DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979

First Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.

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भगवान, णमो णमो! फिर-फिर भूले को, चक्र में पड़े को–शब्द की गूंज से, जागृति की चोट से, ज्ञानियों की व्याख्या से; विवेक, स्मृति, सुरति, आत्म-स्मरण और जागृति की गूंज से, फिर चौंका दिया! णमो णमो!
मोहन भारती! चौंकना शुभ है, लेकिन चौंकना काफी नहीं है। चौंक कर फिर सो जा सकते हो। चौंक कर फिर करवट ले सकते हो! फिर गहरी नींद, फिर अंधेरे की लंबी स्वप्न-यात्रा शुरू हो सकती है।
चौंकना शुभ जरूर है, अगर चौंकने के पीछे जागरण आए। लेकिन सिर्फ चौंकने से राजी मत हो जाना; मत सोच लेना कि चौंक गए तो सब हो गया। ऐसा जिसने सोचा, फिर सो जाएगा। जिसने सोचा कि चौंक गया तो बस सब हो गया, अब करने को क्या बचा–उसकी नींद सुनिश्चित है।
और ध्यान रखना, जो बार-बार चौंक कर सो जाए, फिर धीरे-धीरे चौंकना भी उसके लिए व्यर्थ हो जाता है। यह उसकी आदत हो जाती है। चौंकता है, सो जाता है। चौंकता है, सो जाता है।
तुम कुछ नये नहीं हो, कोई भी नया नहीं है। न मालूम कितने बुद्धों, न मालूम कितने जिनों के पास से तुम गुजरे होओगे। और न मालूम कितनी बार तुमने कहा होगा: ‘णमो णमो! फिर-फिर भूले को, चक्र में पड़े को चौंका दिया!’ और फिर तुम सो गए और चल पड़ा वही…फिर वही स्वप्न, फिर वही आपा-धापी, फिर वही मन का विक्षिप्त व्यापार।
चौंकने का उपयोग करो। चौंकना तो केवल शुरुआत है, अंत नहीं। हां, सौभाग्य है, क्योंकि बहुत हैं जो चौंकते भी नहीं। ऐसे जड़ हैं, ऐसे बधिर हैं, उनके कान तक आवाज भी नहीं पहुंचती। और अगर पहुंच भी जाए तो वे उसकी अपने मन के अनुसार व्याख्या कर लेने में बड़े कुशल हैं। अगर ईश्वर भी उनके द्वार पर दस्तक दे, तो वे अपने को समझा लेते हैं: हवा का झोंका होगा, कि कोई राहगीर भटक गया होगा, कि कोई अनजान-अपरिचित राह पूछने के लिए द्वार खटखटाता होगा। हजार मन की व्याख्याएं हैं अपने को समझा लेने की। और जिसने व्याख्या की, उसने सुना नहीं।
सुनो, व्याख्या न करना। सुनो और चोट को पचा मत जाना। चोट का उपयोग करो। चोट सृजनात्मक है। शुभ है कि ऐसी प्रतीति हुई। पर कितनी देर टिकेगी यह प्रतीति? हवा के झोंके की तरह आती हैं प्रतीतियां और चली जाती हैं, और तुम वैसे ही धूल-धूसरित, उन्हीं गड्ढों में, उन्हीं कीचड़ों में पड़े रह जाते हो। कमल कब बनोगे? कीचड़ के चौंकने मात्र से कमल नहीं बन जाएगा। कीचड़ को गुजरना पड़ेगा एक रूपांतरण से, तो कमल जन्मेगा। चौंकी कीचड़ चौंकी कीचड़ है, लेकिन कीचड़ ही है। बेहतर उनसे, जिनके कान पर जूं भी नहीं रेंगती; लेकिन बहुत भेद नहीं है।
ऐसा बहुत मित्रों को होता है। कोई बात सुन कर एक झंकार हो जाती है। कोई बात गुन कर मन की वीणा का कोई तार छिड़ जाता है। कोई गीत जग जाता है। आया झोंका, गया झोंका। उतरी एक किरण और फिर खो गई। मुट्ठी नहीं बंधती, हाथ कुछ नहीं लगता। और बार-बार ऐसा होता रहा तो फिर चौंकना भी व्यर्थ हो जाएगा; वह भी तुम्हारी आदत हो जाएगी।
तो पहली बात तो यह, मोहन भारती, कि शुभ हुआ, स्वागत करो। स्वयं को धन्यवाद दो कि तुमने बाधा न डाली।
बरस भर पर फिर से सब ओर
घटा सावन की घिर आई!

नाचता है मयूर वन में
मुग्ध हो सतरंगे पर खोल
कूक कोकिल ने की सब ओर
मृदुल स्वर में मधुमय रस घोल
सुभग जीवन का पा संदेश धरा सुकुमारी सकुचाई!
घटा सावन की घिर आई!

पल्लवों के घूंघट से झांक
पलक-दोलों में कलियां झूल
झकोरों से मीठा अनुराग
मांगतीं घन-अलकों में भूल
झरोखों से अंबर के मूक किसी की आंखें मुसकाईं!
घटा सावन की घिर आई!

खुले कुंतल से काले नाग
बादलों के छितराए आज
तड़ित चपला की उज्ज्वल रेख
तिमिर-घन-मुख का हीरक ताज
उड़े भावों के मृदुल चकोर बरस भर पर बदली आई!
घटा सावन की घिर आई!

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