AMI JHARAT BIGSAT KANWAL Osho Hindi Discourse Podcast Part-3

DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979

Third Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.

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दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।।
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।
रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
लागत ही ब्यापै सही, रोम-रोम में पीर।।
साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।।
दरिया सांचा सूरमा, अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।।
दरिया हिरदे राम से, जो कभु लागै मन।
लहरें उट्‌ठें प्रेम की, ज्यों सावन बरखा घन।।
जन दरिया हिरदा बिचे, हुआ ग्यान परगास।
हौद भरा जहं प्रेम का, तहं लेत हिलोरा दास।।
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास।
जन दरिया थाके बनिज, पूरी मन की आस।।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।।
अमी झरत, बिगसत कंवल!
अमृत की वर्षा होती है और कमल खिल रहे हैं!

दरिया किस लोक की बात कर रहे हैं? यहां न तो अमृत झरता है और न कमल खिलते हैं। यहां तो जीवन जहर ही जहर है। कमल तो दूर, कांटे भी नहीं खिलते–या कि कांटे ही खिलते हैं। क्या दरिया किसी और लोक की बात कर रहे हैं?
नहीं, किसी और लोक की नहीं। बात तो यहीं की है, लेकिन किसी और आयाम की है।
दस दिशाएं तो तुमने सुनी हैं; एक और भी दिशा है–ग्यारहवीं दिशा। दस दिशाएं बाहर हैं, ग्यारहवीं दिशा भीतर है। एक आकाश तो तुमने देखा है। एक और आकाश है–अनदेखा। जो देखा, वह बाहर है। जो अभी देखने को है, भीतर है। उस ग्यारहवीं दिशा में, उस अंतर-आकाश में अमृत झर रहा है, अभी झर रहा है; कमल खिल रहे हैं, अभी खिल रहे हैं! लेकिन तुम हो कि उस तरफ पीठ किए बैठे हो। तुम्हारी आंखें दूर अटकी हैं और तुम पास के प्रति अंधे हो गए हो। बाहर जो है, वह तो आकर्षित कर रहा है; और जिसके तुम मालिक हो, जो तुम हो, जो सदा से तुम्हारा है और सदा तुम्हारा रहेगा, उसके प्रति बिलकुल उपेक्षा कर ली है।
शायद इसीलिए कि जो मिला ही है, जो अपना ही है, उसे भूल जाने की वृत्ति होती है। जो हमारे पास नहीं है, जिसका अभाव है, उसे पाने की आकांक्षा जगती है। जो है, जिसका भाव है, उसे धीरे-धीरे हम विस्मृत कर देते हैं। उसकी याद ही नहीं आती। जैसे दांत टूट जाए न तुम्हारा कोई, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। कल तक दांत था और जीभ कभी वहां न गई थी। मन के भी रास्ते बड़े बेबूझ हैं। जो नहीं है, उसमें मन की बड़ी उत्सुकता है। अब दांत टूट गया, जीभ वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी न गई थी। जो है, मन की उसमें उत्सुकता ही नहीं। क्यों? क्योंकि मन जी ही सकता है, अगर उसमें उत्सुकता रहे जो नहीं है। तो दौड़ होगी, तो पाने की चेष्टा होगी, वासना होगी, इच्छा होगी, कामना होगी। जो नहीं है, उसके सहारे ही मन जीता है। जो है, उसको तो देखते ही मन की मृत्यु हो जाती है।
दरिया आकाश में बसे किसी दूर स्वर्ग की बात नहीं कर रहे हैं; तुम्हारे भीतर पास से भी जो पास है, जिसे पास कहना भी उचित नहीं…क्योंकि पास कहने में भी तो थोड़ी दूरी मालूम पड़ती है; जो तुम्हारी श्वासों की श्वास है; जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है; जो तुम्हारा जीवन है; जो तुम्हारा केंद्र है–वहां अभी इसी क्षण अमृत बरस रहा है और कमल खिल रहे हैं! और कमल ऐसे कि जो कभी मुरझाते नहीं–चैतन्य के कमल! योगियों ने जिसे सहस्रार कहा है–हजार पंखुड़ियों वाले कमल! जिनकी सुगंध का नाम स्वर्ग है। जिन पर नजर पड़ गई तो मोक्ष मिल गया। आंखों में जिनका रूप समा गया तो निर्वाण हो गया।
इस बात को सबसे पहले स्मरण रख लेना कि संत दूर की बात नहीं करते। संत तो जो निकट से भी निकट है, उसकी बात करते हैं। संत उसकी बात नहीं करते हैं जो पाना है; संत उसकी बात करते हैं जो पाया ही हुआ है। संत स्वभाव की बात करते हैं।

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