AMI JHARAT BIGSAT KANWAL Osho Hindi Discourse Podcast Part-4

DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979

Third Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.

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भगवान, खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ–चार्वाकों का यह प्रसिद्ध संसार-सूत्र है। नाचो, गाओ और उत्सव मनाओ–यह आपका संन्यास-सूत्र है। संसार-सूत्र और संन्यास-सूत्र के भेद को कृपा करके हमें समझाएं।
नरेंद्र! खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ–चार्वाकों के लिए यह साधन नहीं है, साध्य है। बस, इस पर ही परिसमाप्ति है; इसके पार कुछ भी नहीं है। जीवन इतने में ही पूरा हो जाता है। इसीलिए तो उनको चार्वाक नाम मिला।
यह शब्द समझने जैसा है। चार्वाक बना है चारु-वाक्‌ से। चारु-वाक्‌ का अर्थ होता है: प्यारे वचन, प्रीतिकर वचन। अधिकतम लोगों को यह प्रीतिकर लगा कि बस खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ; इसके पार कुछ भी नहीं है। सौ में से निन्यानबे लोग चार्वाक के अनुयायी हैं–चाहे वे मंदिर जाते हों, मस्जिद जाते हों, गिरजा जाते हों, इससे भेद नहीं पड़ता; हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, इससे भेद नहीं पड़ता। जिंदगी उनकी चार्वाक की ही है। खाना, पीना और मौज उड़ाना, यही उनके जीवन की परिभाषा है, कहें चाहे न कहें। जो कहते हैं, वे तो शायद ईमानदार हैं; जो नहीं कहते हैं, वे बड़े बेईमान हैं। उन नहीं कहने वालों के कारण ही जगत में पाखंड है।
मैं कल ही एक संस्मरण देख रहा था। महात्मा गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू को एक पत्र लिखा। क्योंकि उन्हें खबर मिली कि मोतीलाल नेहरू सभा-समाज में, क्लब में लोगों के सामने शराब पीते हैं। तो पत्र में उन्होंने लिखा कि अगर पीनी ही हो तो कम से कम अपने घर के एकांत में तो पीएं! भीड़-भाड़ में, लोगों के सामने पीना…यह शोभा नहीं देता।
मोतीलाल नेहरू ने जो जवाब दिया, वह बहुत महत्वपूर्ण है। मोतीलाल नेहरू ने कहा: आप मुझे पाखंडी बनाने की चेष्टा न करें। जब मैं पीता ही हूं तो क्यों घर में छिप कर पीऊं? जब पीता ही हूं तो लोगों को जानना चाहिए कि मैं पीता हूं। जिस दिन नहीं पीऊंगा, उस दिन नहीं पीऊंगा। आपसे ऐसी आशा न थी कि आप ऐसी सलाह देंगे!
अब इन दोनों में महात्मा कौन है? इसमें मोतीलाल नेहरू ज्यादा ईमानदार आदमी मालूम होते हैं; इसमें महात्मा गांधी ज्यादा बेईमान मालूम होते हैं। महात्मा गांधी की मान कर ही तो सारा मुल्क बेईमान हुआ जा रहा है–बाहर कुछ, भीतर कुछ। घर में लोग शराब पी रहे हैं और बाहर शराब के विपरीत व्याख्यान दे रहे हैं! संसद में शराब के विपरीत नियम बना रहे हैं–वे ही लोग, जो घरों में छिप कर शराब पी रहे हैं! एक चेहरा छिपाने का, एक चेहरा बताने का। दिखाने के दांत कुछ और, काम में लाने के दांत कुछ और।
लोगों को गौर से देखो तो तुम न तो किसी को हिंदू पाओगे, न किसी को मुसलमान, न जैन, न बौद्ध; तुम सबको चार्वाकवादी पाओगे। फिर ये हिंदू, जैन, मुसलमान भी जिस स्वर्ग की आकांक्षा कर रहे हैं, वह आकांक्षा बड़ी चार्वाकवादी है! मुसलमानों के बहिश्त में शराब के झरने बहते हैं। बेचारा चार्वाक तो यहीं की छोटी-मोटी शराब से राजी है; कुल्हड़-कुल्हड़ पीओ, उससे राजी है। मगर बहिश्त के फरिश्ते कहीं कुल्हड़ों से राजी होते हैं! झरने बहते हैं; जी भर कर पीओ; डुबकी मारो, तैरो शराब में, तब तृप्ति होगी! बहिश्त में सुंदर स्त्रियां उपलब्ध हैं। ऐसी सुंदर स्त्रियां जैसी यहां उपलब्ध नहीं।
यहां तो सभी सौंदर्य कुम्हला जाता है। अभी खिला फूल, सांझ कुम्हला जाएगा; अभी खिला, सांझ पंखुरियां गिर जाएंगी। यहां तो सब क्षणभंगुर है। तो जो ज्यादा लोभी हैं और ज्यादा कामी हैं, उन्होंने स्वर्ग की कल्पना की है। वहां स्त्रियां सदा सुंदर होती हैं, कभी वृद्ध नहीं होतीं। तुमने कभी किसी बूढ़े देवता या बूढ़ी अप्सरा की कोई कहानी सुनी है? उर्वशी की कहानी को लिखे हो गए हजारों साल, उर्वशी अब भी जवान है! स्वर्ग में स्त्रियों की उम्र बस सोलह साल पर ठहरी सो ठहरी, उसके आगे नहीं बढ़ती, सदियां बीत जाती हैं।
ये किनकी आकांक्षाएं हैं?
चूंकि मुसलमान देशों में समलैंगिकता का खूब प्रचार रहा है, इसलिए बहिश्त में भी उसका इंतजाम है। वहां सुंदर स्त्रियां ही नहीं, सुंदर छोकरे भी उपलब्ध हैं। यह किनका स्वर्ग है? ये किस तरह के लोग हैं? इनको तुम धार्मिक कहते हो?
और हिंदुओं के स्वर्ग में कुछ भेद नहीं है; विस्तार के भेद होंगे, मगर वही आकांक्षाएं हैं, वही अभिलाषाएं हैं। हिंदुओं के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठते ही सारी इच्छाओं की तत्क्षण तृप्ति हो जाती है–तत्क्षण! एक क्षण भी नहीं जाता! इतना भी धीरज रखने की जरूरत नहीं है वहां। यहां तो अगर धन कमाना हो, वर्षों लगेंगे, फिर भी कौन जाने कमा पाओ, न कमा पाओ। एक सुंदर स्त्री को पाना हो, एक सुंदर पुरुष को पाना हो, हजार बाधाएं पड़ेंगी। सफलता कम, असफलता ज्यादा निश्चित है। लेकिन स्वर्ग में कल्पवृक्ष के नीचे, भाव उठा कि तत्क्षण पूर्ति हो जाती है।
मैंने सुना है, एक आदमी भटकता हुआ, भूला-चूका कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया। उसे पता नहीं कि कल्पवृक्ष है। थका-मांदा था तो लेटने की इच्छा थी, थोड़ा विश्राम कर ले। मन में ऐसा खयाल उठा कि काश इस समय कहीं कोई सराय होती, थोड़ा गद्दी-तकिया मिल जाता! ऐसा उसका सोचना था कि तत्क्षण सुंदर शय्या, गद्दी-तकिए अचानक प्रकट हो गए! वह इतना थका था कि उसे सोचने का भी मौका नहीं मिला, उसने यह भी नहीं सोचा कि ये कहां से आए! कैसे आए अचानक! गिर पड़ा बिस्तर पर और सो गया। जब उठा, ताजा, स्वस्थ थोड़ा हुआ, सोचा कि बड़ी भूख लगी है, कहीं से भोजन मिल जाता। ऐसा सोचना था कि भोजन के थाल आ गए। भूख इतनी जोर से लगी थी कि अभी भी उसने विचार न किया कि यह सब घटना कैसे घट रही है! भोजन जब कर चुका, तब जरा विचार उठा! नींद से सुस्ता लिया था, भोजन से तृप्त हुआ था, सोचा कि मामला क्या है? कहां से यह बिस्तर आया? मैंने तो सिर्फ सोचा था! कहां से यह सुंदर सुस्वादु भोजन आए? मैंने तो सिर्फ सोचा था! आस-पास कहीं भूत-प्रेत तो नहीं हैं? कि भूत-प्रेत चारों तरफ खड़े हो गए। घबड़ाया, कहा कि अब मारे गए! बस, उसी में मारा गया।
कल्पवृक्ष के नीचे तत्क्षण…समय का व्यवधान नहीं होता। ये किन्होंने बनाए होंगे कल्पवृक्ष? कामियों ने। ये चार्वाकवादियों की आकांक्षाएं हैं। साधारण चार्वाकवादी, साधारण नास्तिक तो इस पृथ्वी से राजी है। लेकिन असाधारण चार्वाकवादी हैं, उनको यह पृथ्वी काफी नहीं है; उन्हें स्वर्ग चाहिए, बहिश्त चाहिए, कल्पवृक्ष चाहिए। अलग-अलग धर्मों के अगर स्वर्गों की तुम कथाएं पढ़ोगे, तो तुम चकित हो जाओगे। उनके स्वर्ग में वही सब कुछ है जिसका वे धर्म यहां विरोध कर रहे हैं–वही सब, जरा भी फर्क नहीं है! यहां कैबरे-नृत्य का विरोध हो रहा है और इंद्र की सभा में कैबरे-नृत्य के सिवाय कुछ नहीं हो रहा है! और उसी इंद्रलोक में जाने की आकांक्षा है। उसके लिए लोग धूनी रमाए बैठे हैं, तपश्चर्या कर रहे हैं, सिर के बल खड़े हैं, उपवास कर रहे हैं। सोचते हैं कि चार दिन की जिंदगी है, इसे तो दांव पर लगा कर, तपश्चर्या करके एक बार पा लो स्वर्ग, तो अनंतकालीन…। तुम्हें वे नासमझ समझते हैं, क्योंकि तुम क्षणभंगुर के पीछे पड़े हो; स्वयं को समझदार समझते हैं, क्योंकि वे शाश्वत के पीछे पड़े हैं।
तुमसे वे बड़े चार्वाकवादी हैं। खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ–यही उनके जीवन का लक्ष्य भी है; यहीं नहीं, आगे भी, परलोक में भी। उनके परलोक की कथाएं तुम पढ़ो, तो वृक्ष हैं वहां जिनमें सोने और चांदी के पत्ते हैं, और फूल हीरे-जवाहरातों के हैं। ये किस तरह के लोग हैं? हीरे-जवाहरातों, सोने-चांदी को यहां गालियां दे रहे हैं; और जो उनको छोड़ कर जाता है, उसका सम्मान कर रहे हैं। और स्वर्ग में यही मिलेगा। जो यहां छोड़ोगे, वही अनंतगुना वहां मिलेगा। तो जो यहां छोड़ता है, अनंतगुना पाने को छोड़ता है। और जिसमें अनंतगुना पाने की आकांक्षा है, वह क्या खाक छोड़ता है!
यहां सौ में निन्यानबे व्यक्ति चार्वाकवादी हैं। इसलिए चार्वाकों को दिया गया शब्द बड़ा सुंदर है। धार्मिक, पंडित-पुरोहित तो उसका कुछ और अर्थ करते हैं; वह अर्थ भी ठीक है। वे तो कहते हैं कि चरने-चराने में जिनका भरोसा है–वे चार्वाक। लेकिन मूल शब्द चारु-वाक्‌ से बना है–मधुर शब्द जिनके हैं; जिनके शब्द सबको मधुर हैं।
चार्वाकों का एक और नाम है–लोकायत। वह भी बड़ा प्रीतिकर नाम है। लोक को जो भाता है, वह लोकायत। अधिक लोगों को जो प्रीतिकर लगता है, वह लोकायत। लोक के हृदय में जो समाविष्ट हो जाता है, वह लोकायत।
यहां धार्मिक कहे जाने वाले लोग भी धार्मिक कहां हैं? तुम जरा सोचना, अगर परमात्मा प्रकट हो जाए तो तुम उससे क्या मांगोगे? जरा सोचना, क्या मांगोगे? अगर परमात्मा कहे कि मांग लो तीन वरदान। क्योंकि पुराने समय से हर कहानी में वे तीन ही वरदान! पता नहीं क्यों तीन! तो तुम कौन से तीन वरदान मांगोगे? किसी को बताने की बात नहीं, मन में ही सोचना। और तुम्हें पक्का पता चल जाएगा कि तुम भी चार्वाकवादी हो। तुम्हारे तीन वरदानों में चार्वाक की सारी बात आ जाएगी।
धर्म के नाम पर लोगों ने एक आवरण तो बना लिया है पाखंड का, और भीतर? भीतर वे वही हैं जिसकी वे निंदा कर रहे हैं।
मैं भी कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। लेकिन नाचना, गाना और उत्सव मनाना गंतव्य नहीं है, लक्ष्य नहीं है, साधन है। साध्य परमात्मा है। ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए। ऐसा गाओ गीत कि गीत ही बचे, गायक खो जाए। ऐसे उत्सव से भर जाओ कि लीन हो जाओ, तल्लीन हो जाओ। उसी तल्लीनता में, उसी लवलीनता में परमात्मा प्रकट होता है।
मैं तुमसे यह नहीं कहता कि खाओ भी मत, पीओ भी मत, मौज भी मत उड़ाओ। मैं कहता हूं: खाओ, पीओ, मौज करो! परमात्मा इसके विपरीत नहीं है। लेकिन इतने पर समाप्त मत हो जाना। चार्वाक सुंदर है, मगर काफी नहीं। सीढ़ी बनाओ चार्वाक की। मंदिर की सीढ़ी का पत्थर चार्वाक से बनाओ; लेकिन मंदिर में जाना है, मंदिर के देवता से मिलन करना है। और वह देवता उन्हीं को मिल सकता है जो उत्सवपूर्ण हैं, जिनके भीतर गीत की गूंज है, जिनके ओंठों पर आनंद की बांसुरी बज रही है; जिन्होंने पैरों में घूंघर बांधे हैं–भजन के, अर्चन के। जिनकी आंखें चांद-तारों पर टिकी हैं, जो रोशनी के दीवाने हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय! जिनकी एक ही प्रार्थना है कि हे प्रभु, ज्योति की तरफ ले चल! असतो मा सद्गमय। असत से सत की तरफ ले चल! जिनके प्राणों में बस एक ही अभीप्सा है: मृत्योर्मा अमृतं गमय! मृत्यु से अमृत की तरफ से चल! कितनी बार बनाया, कितनी बार मिटाया, यह खेल बहुत हो चुका; अब मुझे शाश्वत में लीन हो जाने दे, विलीन हो जाने दे। अब मैं थक गया हूं होने से। यह सुंदर है तेरा जगत। यह खाना-पीना, मौज उड़ाना, ये सब ठीक; मगर बचकानी हैं ये बातें; अब मुझे इनके ऊपर उठा।
बच्चों को खिलौनों से खेलने दो, लेकिन कभी बचकानेपन से ऊपर उठोगे या नहीं? और बच्चों के खिलौने भी मत तोड़ो। यह भी मैं नहीं कहता हूं कि उनके खिलौने तोड़ दो। जिस दिन वे प्रौढ़ होंगे, तब वे स्वयं ही खिलौनों को छोड़ देंगे।
तो मेरी बात में और चार्वाक की बात में बड़ा भेद है। चार्वाक कहता है: यही लक्ष्य। मैं कहता हूं: यह साधन। चार्वाक कहता है: इसके पार कुछ भी नहीं। मैं कहता हूं: इसके पार सब कुछ है। हां, एक बात में मेरी सहमति है कि मैं चार्वाक का विरोधी नहीं हूं। क्योंकि जो चार्वाक के विरोधी हैं, वे सिर्फ तुम्हें पाखंडी बनाने में सफल हो सके हैं। और मैं तुम्हें पाखंडी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हारे जीवन को दो हिस्सों में नहीं बांटना चाहता–कि घर के भीतर कुछ और, और घर के बाहर कुछ और। मैं तुम्हें एक रंग देना चाहता हूं–ऐसा रंग, जो सब तरफ, सब जगह काम आए। मैं तुम्हें जीवन की एक शैली देना चाहता हूं, जिसमें पाखंड की गुंजाइश ही न हो।
तो मैं चार्वाक के पक्ष में हूं; क्योंकि चार्वाक के जो विपरीत हैं, वे पाखंड के समर्थक हो जाते हैं। लेकिन मैं चार्वाक पर समाप्त नहीं होता हूं, सिर्फ चार्वाक पर शुरू होता हूं। चार्वाक के लिए संन्यास जैसी तो कोई चीज है ही नहीं–माया है, झूठ है, असत्य है, ब्राह्मणों की जालसाजी है। चार्वाक के लिए संन्यास जैसी बात तो सिर्फ धूर्तों का जाल है। मेरे लिए संन्यास जीवन का परम सत्य है, परम गरिमा है। चार्वाक के लिए संसार सत्य है, संन्यास झूठ है। जो चार्वाक-विरोधी हैं–तथाकथित धार्मिक, आस्तिक–उनके लिए संसार माया है और संन्यास सत्य है। मेरे लिए दोनों सत्य हैं। और दोनों सत्यों में कोई विरोध नहीं है। संसार परमात्मा का ही व्यक्त रूप है, और परमात्मा संसार की ही अव्यक्त आत्मा है।
मैं तुम्हें एक अखंड दृष्टि देना चाहता हूं, जिसमें कुछ भी निषेध नहीं है। मैं तुम्हें एक विधायक धर्म देना चाहता हूं, जिसमें संसार को भी आत्मसात कर लेने की क्षमता है; जिसकी छाती बड़ी है; जो संसार को भी पी जा सकता है और फिर भी जिसका संन्यास खंडित नहीं होगा; जो बीच बाजार में संन्यस्त हो सकता है; जो घर में रह कर अगृही हो सकता है; जो संसार में होकर भी संसार का नहीं होता।
तो एक अर्थ में मैं चार्वाक से सहमत और एक अर्थ में सहमत नहीं।
इस अर्थ में सहमत हूं कि चार्वाक बुनियाद बनाता है जीवन की। लेकिन अकेली बुनियाद से क्या होगा? मंदिर बनेगा नहीं, तो बुनियाद व्यर्थ है। और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत मंदिर तो बनाते हैं, लेकिन बुनियाद नहीं लगाते। उनके मंदिर थोथे होते हैं। कभी भी गिर जाएंगे; गिरे ही हैं; अब गिरे, तब गिरे। क्योंकि जिनकी कोई नींव नहीं है, उन मंदिरों का क्या भरोसा? उनमें जरा सम्हल कर जाना, कहीं खुद गिरें और तुम्हें भी न ले डूबें!
मैं एक ऐसा मंदिर बनाना चाहता हूं जिसमें संसार, संसार की भौतिकता नींव बनेगी और संन्यास और परमात्मा की गरिमा मंदिर बनेगी। मैं तुम्हें एक ऐसी दृष्टि देना चाहता हूं जिसमें किसी भी चीज का विरोध नहीं है, सभी चीज का अंगीकार है। और एक ऐसी कला, रूपांतरण का एक ऐसा रसायन देना चाहता हूं जिसमें हम पत्थर में भी परमात्मा की मूर्ति खोजने में सफल हो जाएं और जहर को अमृत बनाने में सफल हो जाएं।
यह हो सकता है। और जब तक यह नहीं होगा, इस पृथ्वी पर दो ही तरह के लोग होंगे। जो ईमानदार होंगे, वे चार्वाकवादी होंगे। जो बेईमान होंगे, वे आस्तिक होंगे, धार्मिक होंगे।
ये कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं कि ईमानदार आदमी को तो चार्वाकवादी होना पड़े और धार्मिक आदमी को बेईमान होना पड़े। ये कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं। हमने दुनिया को चुनने के लिए कोई ठीक-ठीक राह नहीं दी।
मैं तीसरी ही बात कर रहा हूं। मैं कहता हूं: बिना बेईमान हुए धार्मिक हुआ जा सकता है।
लेकिन तब चार्वाक को अंगीकार करना होगा। तब चार्वाक को इनकार नहीं किया जा सकता। खाना, पीना और मौज–जीवन की स्वाभाविकता है। जिन ऋषियों ने कहा–‘अन्नं ब्रह्म!’ उन्होंने यह समझा होगा, तभी कहा। अन्न को जो ब्रह्म कह सके, सोच कर कहा होगा, अनुभव से कहा होगा। अन्न को ब्रह्म कहने का क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि भोजन में भी उसको ही अनुभव करना। स्वाद में भी उसका ही स्वाद लेना। यही चार्वाक को बदलने की कीमिया हुई। खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, मौज मनाओ तो उसके आस-पास। वह न भूले!
और परमात्मा को हमने कहा है रसरूप–रसो वै सः। और क्या चाहिए? वही रस है। उस रस का प्रमाण दो। तुम्हारी आंखों में उसकी रसधार बहे। तुम्हारे प्राणों में उसका रस-गीत गूंजे। तुम्हारा व्यक्तित्व उसके रस की झलक दे, प्रमाण बने।
इसलिए कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। इसलिए कहता हूं कि परमात्मा की तरफ जब जा ही रहे हो तो रोते-रोते क्यों जाना? जब हंसते हुए जाया जा सकता है तो रोते हुए क्यों जाना? और अगर रोओ भी, तो तुम्हारे आंसू भी तुम्हारे आनंद के ही आंसू होने चाहिए। जलो भी, तो उसकी आग में जलना। और जब उसकी आग में कोई जलता है, तो आग भी बड़ी शीतल होती है। और जब उसकी आग में कोई जलता है, तो आग भी जलाती नहीं, केवल निखारती है।
चार्वाक एक पुराना दर्शन है–अति प्राचीन, शायद सर्वाधिक प्राचीन। क्योंकि आदिम मनुष्य ने सबसे पहले तो खाओ, पीओ और मौज मनाओ–इसकी ही खोज की होगी। परमात्मा की खोज तो बहुत बाद में हुई होगी। परमात्मा की खोज के लिए तो एक परिष्कार चाहिए। परमात्मा की खोज तो धीरे-धीरे जब हृदय शुद्ध हुआ होगा कुछ लोगों का, कुछ लोगों की हृदयतंत्री बजी होगी, तब हुई होगी।
चार्वाक आदिम दर्शन है, सनातन धर्म है। शेष सारी बातें बाद में आई होंगी। चार्वाक को बुनियाद बनाओ, क्योंकि जो सनातन है और जो तुम्हारे भीतर छिपा है, जो तुम्हारी बुनियाद में पड़ा है, उसको इनकार करके तुम कभी संपूर्ण न हो पाओगे। उसको इनकार करोगे तो तुम्हारा ही एक खंड टूट जाएगा, तुम अपंग हो जाओगे।
और अपंग व्यक्ति परमात्मा तक नहीं पहुंचता, खयाल रखना। सर्वांग होना होगा। तुम्हें अपनी सर्वांग सुंदरता में ही उसकी तरफ यात्रा करनी होगी।
लेकिन लोग प्रकट में चार्वाक नहीं हैं। अब मैं पार्लियामेंट के अनेक सदस्यों को जानता हूं, जो शराब-बंदी के लिए पीछे पड़े हैं–और शराब पीते हैं! मैंने उनसे पूछा भी है कि तुम जब शराब पीते हो, खुद पीते हो, तो शराब-बंदी के खिलाफ में क्यों नहीं काम करते? क्यों शराब-बंदी के लिए चेष्टा करते हो?
तो वे कहते हैं: आखिर जनता से वोट लेने हैं या नहीं? जनता के सामने तो एक चेहरा, एक मुखौटा लगा कर रखना पड़ेगा। रही पीने की बात, सो वह हम घर में कर सकते हैं, मित्रों में कर सकते हैं। सभी पीते हैं! बाहर हम एक चेहरा बना कर रख सकते हैं।
मैं ऐसे नेताओं को भी जानता हूं जो शराब पीकर ही शराब-बंदी के पक्ष में व्याख्यान करने जाते हैं!
मैं एक विश्वविद्यालय में जब विद्यार्थी था, तो उसके जो वाइस चांसलर थे–महाशराबी थे। और शराब-बंदी के खिलाफ व्याख्यान दिया उन्होंने! और जब व्याख्यान दिया तो वे इतना पीए हुए थे कि उनकी गांधीवादी टोपी दो बार गिरी। पहली बार गिरी तो उन्होंने टटोल कर अपने सिर पर रख ली। जब दूसरी बार गिरी, वे इतने नशे में थे कि उन्होंने बगल के आदमी की टोपी उतार कर अपने सिर पर रख ली!

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