AMI JHARAT BIGSAT KANWAL Osho Hindi Discourse Podcast Part-6

DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979

Sixth Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.

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भगवान, उपनिषद कहते हैं कि सत्य को खोजना खड्‌ग की धार पर चलने जैसा है। संत दरिया कहते हैं कि परमात्मा की खोज में पहले जलना ही जलना है। और आप कहते हैं कि गाते-नाचते हुए प्रभु के मंदिर की ओर जाओ। इनमें कौन सा दृष्टिकोण सम्यक है?
आनंद मैत्रेय! सत्य के बहुत पहलू हैं। और सत्य के सभी पहलू एक ही साथ सत्य होते हैं। उनमें चुनाव का सवाल नहीं है। जिसने जैसा देखा, उसने वैसा कहा।
उपनिषद की बात ठीक ही है, क्योंकि सत्य के मार्ग पर चलना जोखिम की बात है। बड़ी जोखिम! क्योंकि भीड़ असत्य में डूबी है। और तुम सत्य के मार्ग पर चलोगे तो भीड़ तुम्हारा विरोध करेगी। भीड़ तुम्हारे मार्ग में हजार तरह की बाधाएं खड़ी करेगी। भीड़ तुम पर हंसेगी, तुम्हें विक्षिप्त कहेगी। भीड़ में एक सुरक्षा है। सत्य के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। भीड़ उससे नाते तोड़ लेती है, उससे संबंध विच्छिन्न कर लेती है। समाज उसे शत्रु मानता है। नहीं तो जीसस को लोग सूली देते? कि मंसूर की गर्दन काटते? वे तुम्हारे जैसे ही लोग थे जिन्होंने जीसस को सूली दी और जिन्होंने मंसूर की गर्दन काटी। अपने हाथों को गौर से देखोगे तो उनमें मंसूर के खून के दाग पाओगे। तुम्हारे जैसे ही लोग थे। कोई दुष्ट नहीं थे। भले ही लोग थे। मंदिर और मस्जिद जाने वाले लोग थे। पंडित-पुरोहित थे। सदाचारी, सच्चरित्र, संत थे। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे बड़े धार्मिक लोग थे। और जिन्होंने मंसूर को मारा उन्हें भी कोई अधार्मिक नहीं कह सकता।
लेकिन क्या कठिनाई आ गई?
जब भी आंख वाला आदमी अंधों के बीच में आता है तो अंधों को बड़ी अड़चन होती है। आंख वाले के कारण उन्हें यह भूलना मुश्किल हो जाता है कि हम अंधे हैं। अहंकार को चोट लगती है। छाती में घाव हो जाते हैं। न होता यह आंख वाला आदमी, न हम अंधे मालूम पड़ते। इसकी मौजूदगी अखरती है। यह मिट जाए तो हम फिर लीन हो जाएं अपने अंधेपन में और मानने लगें कि हम जानते हैं, हमें दिखाई पड़ता है।
जब जानने वाला कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो जिन्होंने थोथे ज्ञान के अंबार लगा रखे हैं, उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उनका ज्ञान थोथा है। उनका ज्ञान लाश है। उसमें सांसें नहीं चलतीं, हृदय नहीं धड़कता, लहू नहीं बहता। उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उन्होंने फूल जो हैं, बाजार से खरीद लाए हैं, झूठे हैं, कागजी हैं, प्लास्टिक के हैं। असली गुलाब का फूल न हो तो अड़चन पैदा नहीं होती, क्योंकि तुलना पैदा नहीं होती।
बुद्धों का जन्म तुलना पैदा कर देता है।
तुम अंधेरे घर में रहते हो, तुम्हारा पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहता है, और पड़ोसियों के पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहते हैं। तुम निश्चिंत हो गए हो। तुम्हें अंधेरे से कोई अड़चन नहीं है। तुमने मान लिया है कि अंधेरा ही जीवन का ढंग है, शैली है। जीवन ऐसा ही है, अंधेरा ही है। ऐसी तुम्हारी मान्यता हो गई।
फिर अचानक तुम्हारे पड़ोस में किसी ने अपने घर का दीया जला लिया। अब या तो तुम भी दीया जलाओ तो राहत मिले; या उसका दीया बुझाओ तो राहत मिले। और दीया जलाना कठिन है, दीया बुझाना सरल है। और दीया जलाना कठिन इसलिए भी है कि कितने-कितने लोगों को दीये जलाने पड़ेंगे, तब राहत मिलेगी। और बुझाना सरल है, क्योंकि एक ही दीया बुझ जाए तो फिर अंधेरा स्वीकृत हो जाए।
उपनिषद ठीक कहते हैं। सत्य के एक पहलू की तरफ इशारा है कि सत्य के मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। और संत दरिया भी ठीक कहते हैं कि परमात्मा की खोज में जलना ही जलना है। विरह की अग्नि के बिना निखरोगे भी कैसे? जब तक विरह में जलोगे नहीं, तपोगे नहीं, राख न हो जाओगे विरह में–तब तक तुम्हारे भीतर मिलन की संभावना पैदा ही नहीं होगी। विरह में जो मिट जाता है, वही मिलन के लिए हकदार होता है, पात्र होता है। मिटने में ही पात्रता है। और जलन कोई साधारण नहीं होगी; रोआं-रोआं जलेगा; कण-कण जलेगा। क्योंकि समग्र होगी जलन, तभी समग्र से मिलन होगा। यह कसौटी है, यह परीक्षा है, और यह पवित्र होने की प्रक्रिया है। यही प्रार्थना है। यही भक्ति है।
तो दरिया भी ठीक कहते हैं। यह दूसरा पहलू हुआ सत्य का। यह आंतरिक पहलू हुआ सत्य का। पहली बात थी, जो बाहर से पैदा होगी। दूसरी बात है, जो तुम्हारे भीतर पैदा होगी।
समाज तुम्हें सताएगा; उसे सहा जा सकता है। कौन चिंता करता उसकी? ज्यादा से ज्यादा देह ही छीनी जा सकती है। तो देह तो छिन ही जाएगी। अपमान किया जा सकता है। तो नाम ठहरता ही कहां है इस जगत में? पानी पर खींची गई लकीर है, मिट ही जाने वाला है। लोग पत्थर फेंकेंगे, गालियां देंगे। मगर ये सब साधारण बातें हैं। जिसके भीतर लगन लगी सत्य की, वह इन सबके लिए राजी हो जाएगा। यह कुछ भी नहीं है। यह कोई बड़ा मूल्य नहीं है।
भीतर की आग कहीं ज्यादा तड़पाएगी। धू-धू कर जलेगी। अपने ही प्राण अपने ही हाथों जैसे हवन में रख दिए! हजार बार मन होगा कि हट जाओ! अभी भी हट जाओ! अभी भी देर नहीं हो गई है। अभी भी लौटा जा सकता है। हजार बार संदेह खड़े होंगे कि क्या पागलपन कर रहे हो? क्यों अपने को जला रहे हो? सारी दुनिया मस्त है और तुम जल रहे हो! सारे लोग शांति से सोए हैं और तुम जग रहे हो और तुम्हारी आंखों में नींद नहीं और तारे गिन रहे हो!
और एक दिन हो तो चल जाए। दिन बीतेंगे, माह बीतेंगे, वर्ष बीतेंगे। और कोई भी पक्का नहीं कि मिलन होगा भी! यही पक्का नहीं है कि परमात्मा है! पक्का तो उसी को हो सकता है जिसका मिलन हो गया। मिलन जिसका नहीं हुआ है, वह तो श्रद्धा से चल रहा है। होना चाहिए, ऐसी श्रद्धा से चल रहा है। होगा, ऐसी श्रद्धा से चल रहा है। झलकें दिखाई पड़ती हैं उसकी–सुबह उगते सूरज में, रात तारों भरे आकाश में, लोगों की आंखों में–झलकें मिलती हैं उसकी। इतना विराट आयोजन है तो इसके पीछे छिपे हुए हाथ होंगे। और इतना संगीतबद्ध अस्तित्व है तो इसके पीछे कोई छिपा संगीतज्ञ होगा। ऐसी मधुर वीणा बज रही है तो अपने से नहीं बज रही होगी। यह संयोग ही नहीं हो सकता।
वैज्ञानिक कहते हैं: जगत संयोग है; पीछे कोई परमात्मा नहीं है। एक वैज्ञानिक ने इस पर विचार किया कि अगर जगत संयोग है तो इसके बनने की संभावना कैसी है, कितनी है? उसने जो हिसाब लगाया वह बहुत हैरानी का है। उसने हिसाब लगाया है, बीस अरब बंदर, बीस अरब वर्षों तक, बीस अरब टाइप राइटरों पर खटापट-खटापट करते रहें, तो संयोग है कि शेक्सपियर का एक गीत पैदा हो जाए। संयोग है। बीस अरब बंदर, बीस अरब वर्षों तक, बीस अरब टाइप राइटरों को ऐसे ही खटरपटर-खटरपटर करते रहें, तो कुछ तो होगा ही। लेकिन शेक्सपियर का एक गीत पैदा करने में इतनी बीस अरब वर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी–शेक्सपियर का एक गीत पैदा करने में!
और यह अस्तित्व गीतों से भरा है। हजार-हजार कंठों से गीत प्रकट हो रहे हैं। हजारों शेक्सपियर पैदा हुए हैं, होते रहे हैं। और जरा तारों के इस विस्तार को, इसकी गतिमयता को, इसके छंद को तो देखो! इस अस्तित्व की सुव्यवस्था को तो देखो! इसके अनुशासन को तो देखो! जगह-जगह छाप है कि अराजकता नहीं है। कहीं गहरे में कोई संयोजन बिठाने वाला हृदय है। कहीं कोई चैतन्य सबको सम्हाले है, अन्यथा सब कभी का बिखर गया होता।
कौन जोड़े है इस अनंत को? इस विस्तार को कौन सम्हाले है?
तुम मरुस्थल में जाओ और तुम्हें एक घड़ी मिल जाए पड़ी हुई, तो क्या तुम कल्पना भी कर सकते हो कि यह संयोग से बन गई होगी? हजारों-हजारों साल में, लाखों-लाखों साल में, करोड़ों-करोड़ों साल में पदार्थ मिलता रहा, मिलता रहा, मिलता रहा, फिर एक घड़ी बन गया! और घड़ी कोई बड़ी बात है? लेकिन एक घड़ी भी अगर तुम्हें रेगिस्तान में पड़ी मिल जाए तो भी पक्का हो जाएगा कि कोई मनुष्य तुमसे पहले गुजरा है, कि तुमसे पहले कोई मनुष्य आया है। घड़ी सबूत है। घड़ी अपने आप नहीं बन सकती। घड़ी नहीं बन सकती तो यह इतना विराट अस्तित्व कैसे बन सकता है?
घड़ी नहीं बन सकती तो मनुष्य का यह सूक्ष्म मस्तिष्क कैसे बन सकता है? सिर्फ पदार्थ की उत्पत्ति, जैसा मार्क्स कहता है? मार्क्स की सुंदर कृतियां, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो नहीं बन सकता अकारण और न दास कैपिटल लिखी जा सकती है अकारण। संयोग मात्र नहीं है। पीछे कोई सधे हाथ हैं।
मगर यह श्रद्धा है। जब तक मिलन न हो जाए; जब तक परमात्मा से हृदय का आलिंगन न हो जाए; जब तक बूंद सागर में एक न हो जाए–तब तक यह श्रद्धा है। श्रद्धा सम्यक है, सार्थक है; मगर श्रद्धा श्रद्धा है, अनुभव नहीं है।
तो मिलन के पहले विरह की अग्नि तो होगी। और चूंकि मिलन की शर्त यही है कि तुम मिटो तो परमात्मा हो जाए। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं है। और जब परमात्मा है, तब तुम नहीं हो।
कबीर कहते हैं: हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
चले थे खोजने, कबीर कहते हैं, और खोजते-खोजते खुद खो गए। और जब खुद खो जाते हैं, तभी खुदा मिलता है। जब तक खुदी है, तब तक खुदा नहीं है।
तो जलन तो बड़ी है। अपने ही हाथों से अपने को चिता पर चढ़ाने जैसी है।
साधारण प्रेम की जलन तो तुमने जानी है! किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया, तो मिलने की कैसी आतुरता होती है! चौबीस घड़ी सोते-जागते एक ही धुन सवार रहती है; एक ही स्वर भीतर बजता रहता है इकतारे की तरह–मिलना है, मिलना है! एक ही छवि आंखों में समाई रहती है। एक ही पुकार उठती रहती है। हजार कामों में उलझे रहो–बाजार में, दुकान में, घर में–मगर रह-रह कर कोई हूक उठती रहती है।
साधारण प्रेम में ऐसा होता है तो भक्ति की तो तुम थोड़ी कल्पना करो! करोड़ों-करोड़ों गुनी गहनता! और अंतर केवल मात्रा का ही नहीं है, गुण का भी है। क्योंकि यह प्रेम तो क्षणभंगुर है जो इतना सताता है। जिससे आज प्रेम है, हो सकता है कल समाप्त हो जाए। जिसकी आज याद भुलाए नहीं भूलती, कल बुलाए-बुलाए न आए, यह भी हो सकता है। आज जिसे चाहो तो नहीं भूल सकते, कल जिसे चाहो तो याद न कर पाओ, यह भी हो सकता है। यह तो क्षणभंगुर है, यह तो पानी का बबूला है। यह इतना जला देता है। यह पानी का बबूला ऐसे फफोले उठा देता है आत्मा में, तो जब शाश्वत से प्रेम जगता है तो स्वभावतः सारी आत्मा दग्ध होने लगती है।
संत दरिया ठीक कहते हैं। वह एक और पहलू हुआ सत्य का कि उसके मार्ग पर जलना ही जलना है। और चूंकि उपनिषद कहते हैं कि उसके मार्ग पर चलना खड्‌ग की धार पर चलना है और दरिया कहते हैं कि उसके मार्ग पर चलना अग्नि लगे जंगल से गुजरना है, इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं: नाचते जाना, गाते जाना! नहीं तो रास्ता काट न पाओगे। जब तलवार पर ही चलना है तो मुस्कुरा कर चलना। मुस्कुराहट ढाल बन जाएगी। नाच सको तो तलवार की धार मर जाएगी। गीत गा सको तो आग भी शीतल हो जाएगी। चूंकि उपनिषद सही, चूंकि दरिया सही, इसलिए मैं सही। जाओ नाचते, गाते, गीत गुनगुनाते। यह तीसरा पहलू है।
जब उस परमात्मा से मिलने चले हैं तो उदास-उदास क्या? साधारण प्रेमी से मिलने जाते हो तो कैसे सज कर जाते हो! देखा किसी स्त्री को अपने प्रेमी से मिलने जाते वक्त? कितनी सजती है! कितनी संवरती है! कैसी अपने को आनंद-विभोर, मस्त-मगन करती है! कैसे उसके ओंठ प्रेम के वचन कहने को तड़फड़ाते हैं! कैसे उसका हृदय लबालब रस से भरा, उंडलने को आतुर! कैसे उसका रोआं-रोआं नाचता है! और तुम परमात्मा से मिलने जाओगे, और उदास-उदास?
उदास-उदास यह रास्ता तय नहीं हो सकता। रास्ता वैसे ही कठिन है; तुम्हारी उदासी और मुश्किल खड़ी कर देगी। रास्ता वैसे ही दुर्गम है। तुम उदास चले तो पहाड़ सिर पर लेकर चले। तलवार की धार पर चले और पहाड़ सिर पर लेकर चले, बचना मुश्किल हो जाएगा। जब तलवार की धार पर ही चलना है तो पैरों में घुंघरू बांधो!
मीरा ठीक कहती है: पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे!
जब तलवार पर ही चलना है तो पैर में घुंघरू तो बांध लो! मैं तुमसे कहता हूं: अगर तुम्हारे पैरों में घुंघरू हों तो तुमने तलवार को बोथला कर दिया। ओंठों पर गीत हों–मस्त, अलमस्त–जैसे आषाढ़ के पहले-पहले बादल घिरे हैं और मत्त मयूर नाचता है, ऐसे तुम नाचते चलो। तलवारें ही तब फूलों की भांति कोमल हो जाएंगी। कांटे फूल हो जाएंगे!
और तुमसे कहता हूं: उत्सव मनाते चलो। क्योंकि उत्सव ही तुम्हें चारों तरफ शीतलता से घेर लेगा। फिर कोई लपट तुम्हें जला न पाएगी। जंगल में लगी रहने दो आग, मगर तुम इतने शीतल होओगे कि आग तुम्हारे पास आकर शीतल हो जाएगी। अंगारे तुम्हारे पास आते-आते बुझ जाएंगे। लपटें तुम्हारे पास आते-आते फूलों के हार बन जाएंगी।
उपनिषद सही, दरिया सही, मैं भी सही। इनमें कुछ विरोधाभास नहीं है। परमात्मा के संबंध में हजारों वक्तव्य दिए जा सकते हैं, जो एक-दूसरे के विपरीत लगते हों। फिर भी उनमें विरोधाभास नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा विराट है। सारे विरोधों को समाए है। सारे विरोधों को आत्मसात किए हुए है। उसमें फूल भी हैं और कांटे भी हैं। उसमें रातें भी हैं और दिन भी हैं। उसमें खुला आकाश भी है, जब सूरज चमकता है; और बदलियों से घिरा आकाश भी है, जब सूरज बिलकुल खो जाता है। परमात्मा में सब है, क्योंकि परमात्मा सब है।
उपनिषद सिर्फ एक पहलू की बात कहते हैं, दरिया दूसरे पहलू की बात कहते हैं। उपनिषद और दरिया भिन्न-भिन्न बात नहीं कह रहे हैं। और उपनिषद में और दरिया में तो तुम थोड़ा संबंध भी जोड़ लोगे कि ठीक है, खड्‌ग की धार पर चलना कि जलना, इन दोनों में संबंध जुड़ता है। मैं तुमसे बहुत ही उलटी बात कह रहा हूं। मैं कहता हूं: नाचते हुए, गीत गाते हुए, उत्सव मनाते हुए…। प्रभु से मिलने चले हो, श्रृंगार करो। प्रभु से मिलने चले हो, बंदनवार बांधो। उस अतिथि को बुलाया, महाअतिथि को–द्वार पर स्वागत, स्वागतम का आयोजन करो। रांगोली सजाओ। इतने महाअतिथि को निमंत्रण दिया है तो घर में दीये जलाओ। दीवाली मनाओ! कि गुलाल उड़ाओ। कि होली और दीवाली साथ ही साथ हो। कि छेड़ो वाद्य, कि गीत उठने दो, कि संगीत जगने दो। उस बड़े मेहमान को तभी तुम अपने हृदय में समा पाओगे।
वह मेहमान जरूर आता है; बस तुम्हारे तैयार होने की जरूरत है। और बिना उत्सव के तुम तैयार न हो सकोगे। उत्सवरहित हृदय में परमात्मा का आगमन न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि परमात्मा उत्सव है। रसो वै सः! वह रसरूप है। तुम भी रसरूप हो जाओ तो रस का रस से मिलन हो। समान का समान से मिलन होता है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, वो नगमा बुलबुले रंगी-नवा इक बार हो जाए। कली की आंख खुल जाए, चमन बेदार हो जाए।।
निर्मल चैतन्य! वह गीत गाया ही जा रहा है। वह नगमा हजार-हजार कंठों से गूंज रहा है। अस्तित्व का कण-कण उसे ही दोहरा रहा है। उसका ही पाठ हो रहा है चारों दिशाओं में–अहर्निश।
और तुम कहते हो: ‘वो नगमा बुलबुले रंगी-नवा इक बार हो जाए।’
वही है! बज रहा है! सब तारों पर वही सवार है। सब द्वारों पर वही खड़ा है। तुम कहते हो: इक बार? वही बार-बार हो रहा है।
‘कली की आंख खुल जाए, चमन बेदार हो जाए।’
कलियां खिल गई हैं, चमन बेदार है; तुम बेहोश हो। दोष कलियों को मत दो और दोष चमन को भी मत देना। और यह सोच कर भी मत बैठे रहना कि वह गीत गाए तो मैं सुनने को राजी हूं। वह गीत गा ही रहा है। वह गीत है। वह बिना गाए रह ही नहीं सकता। कौन पक्षियों में गा रहा है? कौन फूलों में गा रहा है? कौन हवाओं में गा रहा है? अनंत-अनंत रूपों में उसी की अभिव्यक्ति है।
लेकिन अक्सर हम ऐसा सोचते हैं। निर्मल चैतन्य ही ऐसा सोचते हैं, ऐसा नहीं; अधिकतर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि एक बार परमात्मा दिखाई पड़ जाए, एक बार उससे मिलन हो जाए! और रोज तुम उससे ही मिलते हो, मगर पहचानते नहीं! जिसमें भी आता है तुम्हारे द्वार, वही आता है। मगर प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। उसके अतिरिक्त यहां कोई है ही नहीं।
तुम पूछते हो: परमात्मा कहां है?
मैं पूछता हूं: परमात्मा कहां नहीं है?
लेकिन हम बहाने खोजते हैं। हम कहते हैं: गीत बजता, जरूर हम सुनते। यह नहीं सोचते कि हम बहरे हैं। क्योंकि अगर हम कहें कि हम बहरे हैं, तो फिर कुछ करना पड़े। जिम्मेवारी अपने पर आ जाए। कहते हैं: सूरज निकलता तो हम दर्शन करते; झुक जाते सूर्य-नमस्कार में। यह नहीं कहते कि हम अंधे हैं, या कि हमने आंखें बंद कर रखी हैं। क्योंकि यह कहना कि हमने आंखें बंद कर रखी हैं, फिर दोष तो अपना ही हो जाएगा। और जब दोष अपना हो जाएगा तो बचने का उपाय कहां रह जाएगा?
सूरज नहीं निकला, इसलिए हम करें तो क्या करें? सितार नहीं बजी उसकी, तो हम करें तो क्या करें? फूल नहीं खिले उसके, तो हम नाचें तो कैसे नाचें? बहाने मिल गए, सुंदर बहाने मिल गए। इनकी ओट में अपने को छिपाने का उपाय हो जाएगा! वह प्यारा हमारे द्वार पर दस्तक ही नहीं दिया तो हम कहें तो किसको कहें कि आओ? हम द्वार किसके लिए खोलें? दस्तक तो दे! हम ये पलक-पांवड़े किसके लिए बिछाएं? उसका कुछ पता तो चले, कम से कम पगध्वनि तो सुनाई पड़े!
ये मनुष्य की तरकीबें हैं। ये तरकीबें हैं अपने को बचा लेने की। ये तरकीबें हैं कि हम जैसे हैं ठीक हैं। गलती है अगर कुछ तो उसकी है। कली की आंख खुलती, तो चमन तो बेदार होने को राजी था। कली की आंख नहीं खुलती, चमन बेदार कैसे हो?
और मैं तुमसे कहता हूं: हजारों-हजारों कलियों की आंखें खुली हैं। चमन बेदार है! तुम सोए हो, सिर्फ तुम सोए हो! जिम्मेवारी है तो सिर्फ तुम्हारी है। यह तीर तुम्हारे हृदय में चुभ जाए–कि जिम्मेवारी है तो सिर्फ मेरी है; मैंने आंखें बंद कर रखी हैं; मैंने कान वज्र-बधिर कर रखे हैं–तो क्रांति की शुरुआत हो गई। तो पहली किरण शुरू हुई। तो पहला कदम उठा। अब कुछ किया जा सकता है। अगर आंख मैंने बंद की हैं, तो कुछ कर सकता हूं मैं; मेरे हाथ में कुछ बात हो गई। आंख खोल सकता हूं!
जब हम दूसरे पर टाल देते हैं और जब हम अनंत पर टाल देते हैं, तो हम निश्चिंत होकर सो रहते हैं। और एक करवट ले लो, कंबल को और खींच लो, और थोड़ा सो जाओ। अभी सुबह नहीं हुई है; जब सुबह होगी तब उठेंगे।
और मैं तुमसे कहता हूं: सुबह ही सुबह है। हर घड़ी सुबह है! सूरज निकला है। परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। तुम सुनते नहीं। तुम सुन सको, इतने शांत नहीं। तुम्हारे भीतर बड़ा शोरगुल है। तुम्हारे भीतर बड़ा तूफान है, बड़ी आंधियां, बवंडर–विचारों के, वासनाओं के। तुम्हारी आंखें बंद हैं–पांडित्य से, शास्त्रों से, तथाकथित ज्ञान से। तुम्हारी आंखों पर इतनी किताबें हैं कि बेचारी आंखें खुलें भी तो कैसे खुलें? किसी की आंख वेद से बंद है, किसी की कुरान से, किसी की बाइबिल से। तुम इतना जानते हो, इसलिए जानने से वंचित हो। थोड़े अज्ञानी हो जाओ।
मैं तुमसे कहता हूं: थोड़े अज्ञानी हो जाओ। मैं अपने संन्यासियों को अज्ञानी होना सिखा रहा हूं। छीन रहा हूं ज्ञान उनका। क्योंकि ज्ञान ही धूल है दर्पण पर। और ज्ञान छिन जाए और दर्पण कोरा हो जाए–निर्दोष, जैसे छोटे बच्चे का मन, ऐसा निर्दोष–तो फिर देर नहीं होती, पल भर की देर नहीं होती। तत्क्षण उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। तत्क्षण द्वार पर उसकी दस्तक सुनाई पड़ने लगती है। तत्क्षण सारा चमन बेदार मालूम होता है। मस्ती ही मस्ती! सब तरफ उसके गीत गूंजने लगते हैं। फिर तुम जहां भी हो, मंदिर है; और जहां भी हो, वहीं तीर्थ है।
आंख से धूल हटे…और धूल ज्ञान की है, मुश्किल यही है। क्योंकि तुम धूल को धूल मानो तो हटा दो अभी। तुम धूल को समझ रहे हो कि सोना है, हीरे-जवाहरात हैं। सम्हाल कर रखे हो!
इस जगत में सबसे ज्यादा कठिन चीज छोड़ना ज्ञान है। धन लोग छोड़ देते हैं। धन बहुतों ने छोड़ दिया है। घर-द्वार छोड़ देते हैं। वह बहुत कठिन नहीं है। घर-द्वार छोड़ना बहुत सरल है, क्योंकि कौन घर-द्वार से ऊब नहीं गया है? सच तो यह है कि घर-द्वार में रहे आना बड़ी तपश्चर्या है। जो रहते हैं, उनको तपस्वी कहना चाहिए–हठयोगी! पिट रहे हैं, मगर रह रहे हैं। तुम उनको संसारी कहते हो और भगोड़ों को संन्यासी कहते हो! जो भाग गए कायर, उनको कहते हो संन्यासी। और बेचारे ये, जो सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें! इनको तुम कहते हो कि संसारी। जूतों पर जूते पड़ रहे हैं, मगर उनके कान पर जूं नहीं रेंगती। डटे हैं! हठयोगी कहता हूं मैं इनको! इनकी जिद तो देखो! इनका संकल्प तो देखो! इनकी दृढ़ता तो देखो! इनकी छाती तो देखो! बड़े मजबूत हैं! इनको तुम पापी कहते हो?
संसार से भागना तो बिलकुल आसान है। कौन नहीं भागना चाहता है? संसार में है क्या? तकलीफें ही तकलीफें हैं, जंजाल ही जंजाल हैं। दुखों पर दुख चले आते हैं। बदलियां घनी से घनी, काली से काली होती चली जाती हैं।
अंग्रेजी में कहावत है कि हर काले बादल में एक रजत-रेखा होती है। एवरी क्लाउड हैज ए सिल्वर लाइन। अगर तुम संसार को देखो तो हालत बिलकुल उलटी है। एवरी सिल्वर लाइन हैज ए क्लाउड। हर रजत-रेखा के पीछे चला आ रहा है एक बड़ा काला बादल, भयंकर बादल! वह रजत-रेखा तो चमक कर क्षण भर में खत्म हो जाती है। और फिर काला बादल छाती पर बैठ जाता है, जो पीछा नहीं छोड़ता। वह रजत-रेखा तो वैसे ही है जैसे कि मछुआ, मछलीमार कांटे में आटा लगा कर बंसी लटका कर बैठ जाता है तालाब के किनारे। कोई आटा खिलाने के लिए मछलियों के लिए नहीं लाया है। आटे में छिपा कांटा है। मछलियों को फांसने आया है; कोई मछलियों को भोजन कराने नहीं आया है।
एक झील पर मछली मारना मना था। बड़ा तख्ता लगा था कि मछली मारना मना है, सख्त मना है। और जो भी मछली मारेगा, उस पर अदालत में मुकदमा चलाया जाएगा। स्वभावतः उस झील में खूब मछलियां थीं। मुल्ला नसरुद्दीन मजे से मछलियां मारने बैठा था वहां। आ गया मालिक बंदूक लिए। उसने कहा: नसरुद्दीन, तख्ती पढ़ी?
नसरुद्दीन ने कहा: हां, पढ़ी।
फिर क्या कर रहे हो?
बंसी लटका कर बैठा था। कहा: कुछ नहीं, जरा मछलियों को तैरना सिखा रहा हूं।
कोई मछलियों को तैरना सिखाने की जरूरत है? कि मछलियों को आटा खिलाने के लिए कोई उत्सुक है? आटा खुद नहीं मिल रहा है। लेकिन आटे के बिना मछली कांटे को लीलेगी नहीं। प्रयोजन कांटा है।
वह जो रजत-रेखा चमकती है बादल में, वह तो आटा है। पीछे चला आ रहा है काला बादल! आशाओं की तरह रजत-रेखा है। संसार में बस आशाएं हैं, उनकी पूर्ति तो कभी होती नहीं। बस आश्वासन। बस दूर से सब अच्छा लगता है।

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