AMI JHARAT BIGSAT KANWAL Osho Hindi Discourse Podcast Part-7

DATES AND PLACES : JAN 21-30 1979

Seventh Discourse from the series of 14 discourses – AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.

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सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।
संसय मोह भरम की रैन। अंधधुंध होए सोते ऐन।।
जप तप संयम औ आचार। यह सब सुपने के ब्यौहार।।
तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
कहना सुनना हार औ जीत। पछा-पछी सुपनो विपरीत।।
चार बरन औ आश्रम चार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
षट दरसन आदि भेद-भाव। सुपना अंतर सब दरसाव।।
राजा-रानी तप बलवंता। सुपना माहिं सब बरतंता।।
पीर औलिया सबै सयाना। ख्वाब माहिं बरतै विध नाना।।
काजी सैयद औ सुलताना। ख्वाब माहिं सब करत पयाना।।
सांख जोग औ नौधा भकती। सुपना में इनकी इक बिरती।।
काया कसनी दया औ धर्म। सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।।
काम क्रोध हत्या परनास। सुपना माहिं नर्क निवास।।
आदि भवानी संकर देवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
उद्भिज सेदज जेरज अंडा। सुपनरूप बरतै ब्रह्मंडा।।
उपजै बरतै अरु बिनसावै। सुपने अंतर सब दरसावै।।
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
जो कोई साध जागिया चावै। सो सतगुरु के सरनै आवै।।
कृतकृत बिरला जोग सभागी। गुरमुख चेत सब्दमुख जागी।।
संसय मोह-भरम निस नास। आतमराम सहज परकास।।
राम सम्हाल सहज धर ध्यान। पाछे सहज प्रकासै ग्यान।।
जन दरियाव सोई बड़भागी। जाकी सुरत ब्रह्म संग जागी।।
ज्वार उठा जब-जब तूफानों में,
तट मेरा मझधार हो गया।
स्नेह-छांव छुट गई हाथ से,
छाया-पथ अंगार हो गया।
बेसुध सी रो पड़ी जिंदगी, स्वप्न पले के पले रह गए।
नयन ज्योति हो गई परायी, दीप जले के जले रह गए।

एक स्वप्न झूठा-झूठा सा,
जीने का विश्वास दे गया।
पांवों में बेड़ियां बांध कर,
चलने का आभास दे गया।
नयनों में चुभ गए अश्रुकण,
आशाओं का दर्पण फूटा।
कदम बढ़ाते ही आगे को,
फिसले पांव गीत-घट फूटा।
ठहर गए अधरों पर आंसू,
बिखर गया उल्लास धूल में।
चाह लुटी सोई अंगड़ाई,
उलझ गया मधुमास शूल में।
गीत बन गई मौन वेदना, भाव छले के छले रह गए।
दर्पण ने सब कुछ कह डाला, अधर सिले के सिले रह गए।

अंतर में पतझार छिपाए,
उपवन में आंधी बौराई।
हरसिंगार झर गया अजाने,
झुलस गई लतिका तरुणाई।
बिखर गया मनभावन सौरभ,
रही देखती साध कुंआरी,
धूल-धूसरित सूना अंबर,
खोई सी रजनी उजियारी।
टूट गई डाली से डाली,
उखड़ गई सांसों से धड़कन।
ठूंठ बनी रह गई कामना,
उजड़ गई कसमों की कसकन।
यौवन के फूटे अंकुर के पात हिले के हिले रह गए।
उपवन की लुट गईं बहारें, फूल खिले के खिले रह गए।

अनजाना सा एक सपेरा,
मंत्रों की डोली चढ़ आया।
नागिन डसी बीन की धुन में,
अपना ही हो गया पराया।
सिसक उठी सिंदूरी बिंदिया,
बिखर गया नैनों का काजल।
बांझ हो गई मिलन प्रतीक्षा,
बंधन बनी परायी पायल।
फूट गए अवशेष घरौंदे,
स्वप्न रहा सोया का सोया।
सब कुछ ही रह गया देखता,
बेसुध आंगन खोया-खोया।
छूट गए हाथों के बंधन, नयन मिले के मिले रह गए,
डोली पर चढ़ चली बावरी, द्वार खुले के खुले रह गए।
यह जीवन इतना क्षणभंगुर है, फिर भी हम भरोसा कर लेते हैं। हमारे भरोसे की क्षमता अपार है। हमारा भरोसा चमत्कार है। पानी का बबूला है यह जीवन–अब फूटा, तब फूटा। फिर भी हम कितने सपने संजो लेते हैं। सपने में भी हम कितनी आस्था कर लेते हैं। कि सपना भी सच मालूम होने लगता है। आस्था हो तो सपना भी सच हो जाता है। सच मालूम होता है कम से कम। और न मालूम कितने स्वप्न हैं! जितने लोग हैं, उतने स्वप्न हैं। जितने मन हैं, उतने स्वप्न हैं। संसार के स्वप्न हैं, त्याग के स्वप्न हैं। नरक के स्वप्न हैं, स्वर्ग के स्वप्न हैं।
जो जानते हैं, उनका कहना है: स्वप्न देखने वाले को छोड़ कर और सब स्वप्न है। सिर्फ द्रष्टा सत्य है। सब दृश्य झूठे हैं।
और यही क्रांति है–दृश्य से द्रष्टा पर आ जाना। यही छलांग है। स्वप्न तो झूठ हैं ही, स्वप्नों को देखने वाला भर झूठ नहीं है।
मगर हम बड़े उलटे हैं। स्वप्नों को देखने वाले को तो देखते ही नहीं, स्वप्नों में ही उलझे रह जाते हैं। और एक स्वप्न टूटा तो दूसरा बना लेते हैं। ऐसा भी हो जाता है कि धन का स्वप्न टूटा, तो त्याग का स्वप्न निर्मित कर लेते हैं। घर-गृहस्थी का स्वप्न टूटा, तो त्याग-विरक्ति का स्वप्न निर्मित कर लेते हैं। इस लोक का स्वप्न टूटा, तो परलोक के स्वप्न निर्मित कर लेते हैं।
यह क्रांति नहीं है। यह धर्म नहीं है। यह रूपांतरण नहीं है। रूपांतरण तो बस एक है–दृश्य से द्रष्टा पर सरक जाना। वह जो दिखाई पड़ रहा है, फिर चाहे सुख हो, चाहे दुख हो, सब बराबर है। हार हो कि जीत हो, बराबर है। देखने वाला भर सच है। देखने वाले को कब देखोगे? जिस दिन देखने वाले को देखोगे, उस दिन जाग गए।
जागरण का कोई और अर्थ नहीं है। जागरण का इतना ही अर्थ है कि द्रष्टा स्वयं के बोध से भर गया। यही ध्यान, यही समाधि! और फिर देर नहीं लगती–अमी झरत, बिगसत कंवल! झरने लगता है अमृत, कमल खिलने लगते हैं। तुम जागो भर।
स्वप्न तुम्हें सुलाए हैं। स्वप्नों ने तुम्हें मादकता दे दी है, तुम्हारी आंखों को बोझिलता दे दी है। तुम्हारी पलकों को स्वप्नों ने बंद कर दिया है। और तुम जानते भी हो। ऐसा भी नहीं कि नहीं जानते। ऐसा भी नहीं कि दरिया कहें तब तुम जानोगे। रोज कोई अरथी उठती है। मगर मन में एक भ्रांति बनी रहती है कि अरथी सदा दूसरे की उठती है। और बात एक अर्थ में ठीक भी मालूम पड़ती है। तुमने सदा दूसरे की अरथी ही उठते देखी है–कभी अ की, कभी ब की, कभी स की; अपनी अरथी तो उठते देखी नहीं। अपनी अरथी तो तुम उठते कभी देखोगे भी नहीं। दूसरे देखेंगे। इसलिए ऐसा लगता है कि मौत सदा दूसरे की होती है, मैं तो कभी नहीं मरता। तो भ्रांति को संजोए रखते हैं हम। हर आदमी ऐसे जीता है जैसे यह जीवन समाप्त न होगा; ऐसे लड़ता है जैसे सदा यहां रहना है; ऐसा जूझता है कि रत्ती भर उससे छिन न जाए; जब कि सब छिन जाएगा।
छूट गए हाथों के बंधन, नयन मिले के मिले रह गए,
डोली पर चढ़ चली बावरी, द्वार खुले के खुले रह गए।
यौवन के फूटे अंकुर के पात हिले के हिले रह गए,
उपवन की लुट गईं बहारें, फूल खिले के खिले रह गए।
गीत बन गई मौन वेदना, भाव छले के छले रह गए।
दर्पण ने सब कुछ कह डाला, अधर सिले के सिले रह गए।
बेसुध सी रो पड़ी जिंदगी, स्वप्न पले के पले रह गए,
नयन ज्योति हो गई परायी, दीप जले के जले रह गए।
सब पड़ा रह जाएगा। दीये जलते रहेंगे, तुम बुझ जाओगे। फूल खिलते रहेंगे, तुम झड़ जाओगे। संसार ऐसे ही चलता रहेगा। शहनाइयां ऐसे ही बजती रहेंगी, तुम न होओगे। वसंत भी आएंगे, फूल भी खिलेंगे। आकाश तारों से भी भरेगा। सुबह भी होगी। सांझ भी होगी। सब ऐसा ही होता रहेगा। एक तुम न होओगे।
यह एक कौन है, जो कभी अचानक प्रकट होता है जन्म में और फिर अचानक मृत्यु में विलीन हो जाता है? इस एक को पहचान लो। इस एक को जान लो। इस एक की स्मृति जगा लो। जिसने इस एक को जान लिया, उसका जीवन सार्थक है। अमी झरत, बिगसत कंवल! और सब तो सोए हुए हैं।
दरिया कहते हैं: सब जग सोता सुध नहिं पावै।
अपनी सुध नहीं है। सपनों की भलीभांति सुध है।
तुमने पुरानी कहानी सुनी न! दस आदमियों ने बाढ़ में आई हुई नदी पार की। गांव के गंवार थे। नदी-पार जाकर एक ने कहा कि गिनती तो कर लो; जितने चले थे, उतने पार कर पाए या नहीं? बाढ़ भयंकर है। कोई बाढ़ में बह न गया हो।
गिनती भी की। और दसों बैठ कर वृक्ष के नीचे रोने लगे उसके लिए जो बाढ़ में बह गया। क्योंकि गिनती नौ ही होती थी, चले दस थे। और गिनती नौ इसलिए नहीं होती थी कि कोई बह गया था; गिनती नौ इसलिए होती थी कि प्रत्येक अपने को छोड़ कर गिनता था। गिनता था शेष को, गिनने वाला छूट जाता था, गिनने वाला नहीं गिना जाता था। एक ने गिना, दूसरे ने गिना, तीसरे ने गिना…दसों ने गिना। तब तो बात बिलकुल पक्की हो गई। भूल होती एक से होती, दो से होती, दसों से तो भूल न होगी। और सबका निष्कर्ष आया नौ। तो जरूर एक साथी खो गया। दसों बैठ कर रोने लगे।
एक फकीर राह से गुजरता था। भले-चंगे दस आदमियों को रोते देखा, पूछा: हुआ क्या? किसलिए रोते हो?
उन्होंने कहा: हमारा एक साथी खो गया है। घर से दस चले थे। अब हम नौ हैं।
फकीर ने एक नजर डाली। दस ही थे। पूछा: जरा गिनती करो। देखी उनकी गिनती। समझ गया कि जो भूल पूरा संसार कर रहा है, वही भूल ये भी कर रहे हैं। भूल कुछ नई नहीं है, बड़ी पुरानी है, बड़ी प्राचीन है। जो इस भूल को करता है, वही गंवार है। जो इस भूल को करता है, वही अज्ञानी है। जो इस भूल से बच जाता है, उसी के जीवन में ज्ञान का सूर्य प्रकट होता है। अमी झरत, बिगसत कंवल!
फकीर हंसने लगा, खिलखिला कर हंसने लगा। तो फकीर ने कहा: तुम भी वही भूल कर रहे हो जो पहले मैं करता था। तुम वही भूल कर रहे हो जो सारा संसार करता है। तुम बड़े प्रतिनिधि हो। तुम बड़े प्रतीकरूप हो। तुम साधारणजन नहीं हो, तुम सारे संसार का निचोड़ हो। अब मैं तुम्हारी गिनती करता हूं। अब मेरे ढंग से गिनती समझो। मैं एक-एक चांटा मारूंगा तुम्हें। जिसको चांटा मारूं पहले, वह बोले एक। जब दूसरे को मारूं तो दो चांटे मारूंगा, तो वह बोले दो। तीसरे को मारूं तो तीन मारूंगा, वह बोले तीन। ऐसे गिनती चलेगी।
मस्त-तड़ंग फकीर था। करारे चांटे मारे उसने। एक-एक को छठी का दूध याद दिला दिया! और जब पड़ा चांटा तो गिनती उठी एक। पड़े दो चांटे, गिनती उठी दो। और ऐसे गिनती बढ़ती गई। और जब दस चांटे पड़े और गिनती उठी दस, तो उन दसों ने फकीर के पैर पकड़ लिए। उन्होंने कहा: मारा सो ठीक, पर तुम्हारा बड़ा धन्यवाद कि खोए को मिला दिया, कि डूबे को बचा लिया, कि जिसे हम समझते थे चूक ही चुके हैं, उसे लौटा दिया।
सदगुरु सिर्फ चांटे मार रहे हैं। करारे मारते हैं। छठी का दूध याद आ जाए, ऐसे मारते हैं। लेकिन नींद गहरी है, कोई और उपाय नहीं है। खूब झकझोरे जाओ तो ही शायद जागो। और एक बार अपनी गिनती कर लो तो बस, शेष करने को कुछ भी नहीं रह जाता।
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।
और इस जगत में जो लोग बोल रहे हैं, सो रहे हैं और बोल भी रहे हैं। आखिर वार्ता तो चल ही रही है। वे सब नींद में बड़बड़ा रहे हैं।
तुम्हें यह भी कभी प्रतीति होती है कि तुम जो लोगों से बातें करते हो, होश में कर रहे हो? करनी थी, इसलिए कर रहे हो? करने में सार है, इसलिए कर रहे हो? करने से किसी का लाभ है, इसलिए कर रहे हो? कोई मंगल होगा? कोई कल्याण होगा? तुम किसलिए बातें कर रहे हो? बातों के लिए बातें चल रही हैं। बातों में से बातें चल रही हैं। बातों में से बतंगड़ बन जाते हैं। तुम एक कहते हो, दूसरा दूसरी कहता है। खाली नहीं रह सकते। लोग दिन-रात वार्ता में लगे हैं। हाथ कुछ लगता नहीं।
दरिया ठीक कहते हैं: नींद में बड़बड़ा रहे हो। तुम्हारे वचनों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे शब्दों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे शब्द निरर्थक। तुम्हारे वचन कूड़ा-कचरा। क्योंकि तुम्हीं जागे नहीं हो। सिर्फ जागों के वचन में अर्थ होता है। क्योंकि अर्थ ही जागरण से जन्मता है। बुद्धों के वचनों में जीवन होता है, आत्मा होती है। तुम्हारे वचन तो सड़ी हुई लाश हैं, जिनके भीतर कोई प्राण नहीं हैं। तुम्हें ही पता नहीं है और तुम दूसरों को जना रहे हो!
इस जगत में हर आदमी सलाह दे रहा है। कहते हैं: दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज दी जाती है वह सलाह है और सबसे कम जो चीज ली जाती है वह भी सलाह है। सब सलाह दे रहे हैं, कोई सलाह ले नहीं रहा है। तुम्हें मौका मिल जाए तो तुम चूकते नहीं, तुम चुप नहीं रहते। तुम्हें जिन बातों का पता नहीं, उनके भी तुम उत्तर देते हो। तुमसे कोई पूछे: ईश्वर है? तो तुम में इतनी भी ईमानदारी नहीं है कि कह सको कि मुझे मालूम नहीं। तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोगों से ज्यादा बड़े बेईमान खोजने कठिन हैं! तुम तो छोटी-मोटी बेईमानियां करते हो कि दो और दो जोड़े और पांच कर लिए। तुम्हारी बेईमानियां तो बहुत छोटी-छोटी हैं। लेकिन तुम्हारे धार्मिक व्यक्तियों की, तुम्हारे पंडित-पुरोहितों की, तुम्हारे मुल्ला-मौलवियों की बेईमानियां तो बहुत बड़ी हैं। ईश्वर का कोई पता नहीं और कहते हैं: हां, ईश्वर है! जोर से कहते हैं, छाती ठोंक कर कहते हैं कि ईश्वर है।
ईश्वर को जाना है? बिना जाने कैसे कह रहे हो? और यह बेईमानी तो बड़ी से बड़ी हो गई। इससे बड़ी तो कोई बेईमानी नहीं हो सकती। और फिर ऐसे ही दूसरी तरफ दूसरे बेईमान हैं, जिन्होंने जाना नहीं और कहते हैं: ईश्वर नहीं है।
पश्चिम में एक विचारक हुआ–टी.एच.हक्सले। उसने एक नये विचार, एक नई जीवन-दृष्टि को जन्म दिया। एक नया शब्द गढ़ा–एग्नास्टिक। नास्टिक का अर्थ अंग्रेजी में होता है: जो मानता है कि मुझे ज्ञात है। नास्टिक का अर्थ होता है: ज्ञानी, पंडित। हक्सले ने नया शब्द गढ़ा–एग्नास्टिक। हक्सले बड़ा ईमानदार आदमी था। उसने कहा: मुझे मालूम नहीं है कि ईश्वर है। और मुझे यह भी मालूम नहीं है कि ईश्वर नहीं है। और लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम कौन हो, आस्तिक हो कि नास्तिक? मानते हो कि नहीं मानते? ईश्वरवादी कि अनीश्वरवादी? मैं क्या कहूं? बड़ा ईमानदार आदमी रहा होगा। बड़ा खरा आदमी था। उसने कहा: मुझे कोई नया शब्द गढ़ना पड़ेगा। क्योंकि लोग पूछते हैं, कुछ न कहो तो अभद्रता मालूम होती है। और लोगों ने तो सीधी कोटियां बांध रखी हैं–या तो कहो नास्तिक या कहो आस्तिक। मगर दोनों हालत में झूठ हो जाता है।
तो हक्सले ने सिर्फ सौ साल पहले एक नया शब्द गढ़ा–एग्नास्टिक। एग्नास्टिक का अर्थ होता है: मुझे पता नहीं। मुझे अभी कुछ भी पता नहीं। खोज रहा हूं, तलाश रहा हूं, टटोल रहा हूं।
मैं कहूंगा: हक्सले कहीं ज्यादा धार्मिक व्यक्ति है, बजाय तुम्हारे शंकराचार्यों के, कि वेटिकन के पोप के। ज्यादा धार्मिक आदमी है। क्योंकि धर्म यानी ईमान। और ईमान की शुरुआत यहीं से होनी चाहिए। न तो रूस के नास्तिकों में ईमानदारी है, क्योंकि उन्हें कोई पता नहीं है; न खोजा है, न ध्यान किया, न धारणा की, न समाधि में उतरे। और कहते हैं: ईश्वर नहीं है! छोटे-छोटे बच्चों को रूस में सिखाया जा रहा है कि ईश्वर नहीं है। स्कूल में पाठ हैं कि ईश्वर नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे दोहराते हैं कि ईश्वर नहीं है। दोहराते-दोहराते बड़े हो जाते हैं, बड़े में भी दोहराते रहते हैं।
तुम सोचते हो, तुम्हारा ईश्वर रूस की नास्तिकता से कुछ भिन्न है? बचपन से सुना है कि है, तो दोहराते हो। घर में, बाहर, सब तरफ दोहराया जा रहा है, तो तुम भी दोहरा रहे हो। तुम ग्रामोफोन रिकार्ड हो। तुम अपनी कब कहोगे? और जब तक अपनी न कहोगे, तब तक ईमान नहीं है।
खोजो! तलाश करो! और तलाश जैसे ही तुम शुरू करोगे, यह सवाल सबसे बड़ा महत्वपूर्ण हो जाएगा कि तलाश कहां करें–बाहर कि भीतर?
स्वभावतः, पहले भीतर। पहले अपने को तो पहचानो! पहले खोजी को तो खोजो! और मजा यह है कि जिसने खोजी को खोजा, उसे सब मिल जाता है। स्वयं को जानते ही सत्य के द्वार खुल जाते हैं। आत्मा को पहचानते ही परमात्मा पहचान लिया जाता है। आत्मा तुम्हारे भीतर झरोखा है परमात्मा का। आत्मा तुम्हारे भीतर लहर है उसके सागर की। आत्मा उसका अणु है, बूंद है। और बूंद में सब सागरों का राज छिपा है। एक बूंद को ठीक से समझ लो तो तुमने सारे सागरों का राज समझ लिया। जल का सूत्र समझ में आ जाएगा। जल का स्वभाव समझ में आ जाएगा।
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।
और यहां पंडित हैं, पुरोहित हैं और प्रवचन दिए जा रहे हैं और धर्मशास्त्र समझाए जा रहे हैं, रामायण पढ़ी जा रही है, गीता पढ़ी जा रही है, कुरान समझाए जा रहे हैं। किससे तुम समझ रहे हो? समझाने वाला छाती पर हाथ रख कर कह सकता है कि उसने जाना है? जरा उसकी आंखों में झांको। उसकी आंखें उतनी ही अंधी हैं जितनी तुम्हारी; शायद थोड़ी ज्यादा हों, कम तो नहीं। क्योंकि उसकी आंखों पर शब्दों का और शास्त्रों का बोझ तुमसे ज्यादा है। जरा उसके जीवन में तलाशो। और न तो तुम्हें सुगंध मिलेगी सत्य की और न तुम्हें आलोक मिलेगा आत्मा का। जरा उसके पास बैठो। न तो आनंद का झरना फूटता हुआ मालूम पड़ेगा, न शांति की हवाएं बहती हुई मालूम होंगी। हां, रामायण शायद तुम्हें वह ठीक से समझाए और गीता के शब्द-शब्द का विश्लेषण करे। मगर यह सब बाल की खाल निकालना है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है।

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